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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
गुण संख्या
न्यायकन्दली
बाह्योऽर्थः । तथा यत्परस्य प्रकाशकं तत्स्वप्रकाशे सजातीयपरानपेक्षम्, यथा प्रदीपः, प्रकाशकं च परस्य ज्ञानमिति । अतः प्रकाशमानस्यैव बोधस्य विषयप्रकाशकत्वमिति न्यायादनपेतम् । तथा सति सहोपलम्भनियमात् सर्वज्ञासर्वज्ञयोरिव वेद्यवेदकयोरभेदः, भेदस्य सहोपलम्भानियमो व्यापको नीलपीतयोयुगपदुपलम्भनियमाभावात् । सहोपलम्भानियमविरुद्धश्च सहोपलम्भनियम इति व्यापकविरुद्धोपलब्ध्या भेदादनियमव्याप्त्या व्यावर्तमानो नियमोऽभेदे व्यवतिष्ठत इति प्रतिबन्धसिद्धिः । न च 'सह' शब्दस्य साहाय्यं योगपद्यं वार्थः, तयोश्च भेदेन व्याप्तत्वाद्विरुद्ध इति वाच्यम्, आभिमानिकस्य सहभावस्य हेतुविशेषणत्वेनोपादानात् दृष्टान्ते द्विचन्द्रे आभिमानिकः सहभावो न तात्त्विकः, चन्द्रस्यैकत्वात् । सार्वज्य
सकता है ? अगर यह कहें कि विज्ञान और उसके विषय दोनों ही प्रकाशस्वभाव के ही है, किन्तु इनमें विज्ञान का यह स्वभाव व्यक्त है और विषयों का अव्यक्त, अतः प्रकाशस्वभाव वाले विज्ञान में विषयों के प्रकाशस्वभाव अभिव्यक्त होकर विषयों को प्रकाशित करते हैं, तो इस विषय में यह कहना है कि जिसका प्रकाश अव्यक्त रहता है वह स्वयं भी अव्यक्त ही रहता है, जैसे दीवाल से घिरी हुई वस्तु । पूर्व पक्षवादी के मत से वस्तुओं का प्रकाशस्वभाव अव्यक्त है, अतः उसके मत से वे वस्तु कभी प्रकाशित हो ही नहीं सकतीं। रही विज्ञान के प्रकाशस्वभाव की बात -इस प्रसङ्ग में यह कहना है कि जो दूसरे का प्रकाशक होता है, बह अपने प्रकाश के लिए किसी दूसरे प्रकाशस्वभावकाले की अपेक्षा नहीं रखता है, जैसे कि प्रदीप । ज्ञान भी दूसरे का प्रकाशक है अतः विज्ञान स्वयं प्रकाश' हैं। विज्ञान दूसरे का प्रकाशक है यह बात न्याय से विरुद्ध भी नहीं है । चूँकि 'सहोपलम्भनियम' के कारण अर्थात् ज्ञान और अर्थ नियमतः साथ ही प्रकाशित होते हैं इस नियम के कारण (वे दोनों एक ही हैं) जैसे कि एक ही पुरुष ( काल भेद से ) सर्वज्ञ एवं असर्वज्ञ दोनों होने पर भी अभिन्न ही होता है, सुतराम् सहोपलम्भ का अनियम भेद का व्यापक है (अर्थात् यह अव्यभिचरित नियम है कि जिन वस्तुओं का नियमतः साथ साथ प्रकाशन नहीं होता वे अवश्य ही परस्पर भिन्न होती हैं ) जैसे कि नील और पीत नियमतः साथ प्रकाशित नहीं होते और वे दोनों भिन्न होते हैं । सहोपलम्भ का यह अनियम कथित-सहोपलम्भ नियम का विरोधी है, अतः ( भेद के ) व्यापक (सहोपलम्भ के अनियम ) के विरुद्ध (सहोपलम्भ की) उपलब्धि ( ज्ञान ) और अर्थों के भेद को मिटाकर दोनों को अभिन्न रूप में व्यवस्थित कर देती है, ( अतः विज्ञान से भिन्न किसी वस्तु की वास्तविक सत्ता नहीं है ), इस प्रकार सहोपलम्भनियम में अभेद की व्याप्ति सिद्ध है । ( उ०) सहोपलम्भ शब्द में प्रयुक्त 'सह' शब्द का साहाय्य अर्थ है ? या एककालिकत्व १ ये दोनों ही विषयों के भेद के साथ सम्बद्ध हैं । (प्र०) 'सहोपलम्भ' में आभिमानिक ( सांवृत, अतात्त्विक) साहित्य को ही विशेषण मानते हैं। इसके दृष्टान्त द्विचन्द्र ज्ञान में भी सांवृत साहित्य
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