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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
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३०१
अथायमनर्थज: ? कुतश्चिन्निमित्तात् कदाचिद्भवति, असन्नेव वा प्रतीयते, तद्वदितराकारोऽपि भविष्यति, असन्नेव वा प्रत्येष्यते, न चाकारवादे ज्ञानाकाराणां भ्रान्ताम्रान्तत्वविवेकः सुगम इति निरूपितप्रायम् ।
किञ्च तदानों बोधाकारः सदृशमर्थं कारणं कल्पयति, यदि यादृशो बोधाकारस्तादृश एवाकारस्य कारणमित्यवगतम् । न चार्थस्यासंवेद्यत्वे तथा प्रतीतिः संभवति हेतुत्वसादृश्ययोविनिश्चयस्योभयग्रहणाधीनत्वादिति नाकारादर्थसिद्धिः । तदेवं न हेतुत्वं ग्राह्यलक्षणं नाप्याकारार्पणक्षमस्य हेतुत्वम्, तस्माद् ग्राह्यलक्षणाभावाद् बुद्धेरन्योऽनुभाव्यो नास्तीति साधूक्तम् ।
इतोऽपि बुद्धिव्यतिरिक्तोऽर्थो नास्ति, यद्यसौ जडो न स्वयं प्रकाशेत । न च तस्य प्रकाशकान्तरमुपलभामहे, सर्व दैवैकस्यैवाकारस्योपलम्भात् । अथास्ति प्रकाशम्, न तत्स्वयमप्रकाशमानमप्रकाशस्वभावं विषयमपि प्रकाशयेत् । यदव्यक्तप्रकाशं तदव्यक्तम्, यथा कुड्यादिव्यवहितं वस्तु, अव्यक्त प्रकाशश्च परस्य
इस प्रकार एक विज्ञान में आकार के खण्डित हो जाने पर वह और विज्ञानों में भी सम्भव नहीं है । ( उ० ) अगर नीलादि आकार के विज्ञान अर्थ के बिना ही उत्पन्न होते हैं तो फिर औरही किसी कारण से कभी उत्पन्न होते हैं, या नीलादि आकारों के अस्तित्व के बिना ही प्रतीत होते हैं तो फिर और आकार भी वैसे ही होंगे या बिना अस्तित्व के ही प्रतीत होंगे । यह तो उपपादित सा है कि 'आकारबाद' में ज्ञान के आकारों से किसी आकार को भ्रान्त या अभ्रान्त समझना सहज नहीं हैं ।
दूसरी बात यह है कि बोध का आकार अपने सदृश हो कारण की कल्पना करता है तो फिर इससे यह समझा जाय कि 'इस बोध का जो आकार है उसी तरह का आकार उसका कारण है,' किन्तु यह आकार को अग्राह्य मानने पर सम्भव नहीं है, क्योंकि कारणत्व और सादृश्य इन दोनों का ग्रहण उनके प्रतियोगी और अनुयोगी रूप दो सम्बन्धियों के ग्रहण के बिना सम्भव नहीं है । एवं विज्ञान का कारण उससे ग्राह्य नहीं हो सकता, एवं विज्ञान में जो आकार को उत्पन्न करेगा वह विज्ञान का कारण नहीं हो सकता । अतः हमने ठीक कहा था कि बुद्धि के ग्राह्य स्वरूप को छोड़कर और कोई बुद्धि का ग्राह्य नहीं है ।
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बुद्धि से भिन्न अर्थ की स्वतन्त्र सत्ता इसलिए भी नहीं है कि अर्थ अगर जड़ है तो फिर स्वयं प्रकाशित नहीं हो सकता, एवं उसके दूसरे प्रकाशक की उपलब्धि होती नहीं है, बराबर एक आकार की ही प्रतीति होती है । अगर कोई दूसरा प्रकाशक है तो फिर वह या तो स्वयं अप्रकाश स्वभाव का होगा ? या प्रकाशस्त्रभाववाला होगा ? इन दोनों में से किसी से भी अर्थों का प्रकाश सम्भव नहीं है, क्योंकि जो स्वयं अप्रकाश स्वभाव का होगा वह अप्रकाशस्वभाव की ही किसी दूसरी वस्तु को कैसे प्रकाशित कर