________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
३०५
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली सामर्थ्यम. अविद्यमानत्वात । नन्वेवं विचित्रप्रत्ययोऽपि न स्याज्ज्ञानस्यैकत्वेन तदव्यतिरेकिणामप्येकत्वप्रसङ्गात, प्रत्याकारं च ज्ञानभेदे ज्ञानानां प्रत्येक स्वाकारमात्रनियतत्वात, तेभ्यो व्यतिरिक्तस्य सर्वाकारग्राहकस्याभावात् । अत्र ब्रूमः—न तावच्चित्रं रूपं न प्रकाशते ? संवित्तिविरोधात् । जडस्य च प्रकाशायोगः । तेनेदं ज्ञानात्मकमेव रूपम्, न चाकारभेदेन ज्ञानभेदः, चित्ररूपस्यैकस्याकार. भेदाभावात् । यथा नीलस्यैको नीलस्वभाव आकारः, तथा वैचित्र्यस्यैकस्य चित्रस्वभाव एवाकारः । तस्मिश्चात्मभूते ज्ञानं प्रवर्तमानं कृत्स्न एव प्रवर्तते, यदि वा न प्रवर्तत एव । न तु भागेन प्रवर्तते, तस्य निर्भागत्वात् । ये त्वमी भागाः परस्परविविक्ताः प्रतिभान्ति, न ते चित्रं रूपमिति न काचिदनुपपत्तिः । स्थलाकारोऽप्यनजैव दिशा समर्थनीयः । अवयवी त्वेकः स्थूलो वा नोपपद्यते । नानावयववृत्तित्वेन तस्य नानात्वापातात् । ज्ञानाकारस्त्वेकमिन् ज्ञाने वर्तमान एकः स्थूलो भवत्येव। कम्पाकम्पादिविरोधस्तु संविद्विरोधो व्युदसनीय इति केचित् ।
स्वप्नज्ञान की कारणता सम्भव ही नहीं है, क्योंकि उस समय उनका अस्तित्व ही नहीं है। (उ०) ज्ञान और अर्थ यदि एक हों तो फिर चित्र रूप की प्रतीति नहीं हो सकेगी, क्योंकि चित्र रूप विषयक प्रतीति एक है, उससे अभिन्न रूप भी एक ही होगा । आकार के भेद से यदि ज्ञानों का भेद मानें तो फिर प्रत्येक ज्ञान आकार में नियत होगा, उनसे अतिरिक्त सभी रूपों का एक आकार का कोई एक ग्राहक सम्भव नहीं होगा। (प्र०) यह कहना अनुभव से विरुद्ध है कि चित्र रूप की प्रतीति ही नहीं होती है। चूंकि जड़ में प्रकाश का सम्बन्ध सम्भव नहीं है, अतः प्रकाशित होनेवाला चित्र रूप भी ज्ञान रूप ही है। चित्र रूप एक है, उसके विभिन्न आकार नहीं हैं। अत: यह कहना भी सम्भव नहीं है कि चित्र रूप की प्रतीति वस्तुतः अनेक रूपों की विभिन्न आकार की अनेक प्रतीतियाँ ही हैं। जैसे कि नील का नीलस्वभाव रूप एक ही आकार है, वैसे ही वैचित्र्य का भी चित्र स्वभाव रूप एक ही आकार है । इस स्वतन्त्र एक आकार की वस्तु में यदि ज्ञान प्रवृत्त होगा तो सम्पूर्ण में ही प्रवृत्त होगा अथवा प्रवृत्त ही नहीं होगा, किन्तु उसके किसी एक अंश में प्रवृत्त नहीं हो सकता, क्योंकि वह अंशों से शून्य है, उसके जो परस्पर भिन्न भाग मालूम होते हैं वै चित्र रूप नहीं है। अतः कोई अनुपपत्ति नहीं है। वस्तुओं के स्थूल आकारों का भी समर्थन इसी रास्ते से करना चाहिए। किसी बौद्ध विशेष का मत है कि सभी अवयवों में रहनेवाला एक स्थूल अवयवी का मानना ठीक नहीं जंचता, क्योंकि अनेक अवयवों से सम्बद्ध रहने के कारण उसमें भी अनेकत्व की ही आपत्ति होगी । उसको अगर ज्ञान का आकार मान लेते हैं तो फिर एक आकार के ज्ञान में आरूढ़ वस्तु में स्थूलत्व और एकत्व दोनों का रहना असम्भव नहीं होता । नाना अवयवों से एक स्थूलाकार वस्तु मानने में एक ही वस्तु में कम्प और अकम्प रूप होनेवाले विरोध रूप दोष तो वस्तुतः ज्ञानों का ही विरोध है, जिसका परिहार कर लेना चाहिए ।
३६
For Private And Personal