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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे संख्या
न्यायकन्दली अपरे तु ज्ञानाकारस्याप्यनादिवासनावशेन प्रतिभासमानस्य विचारा. क्षमत्वमलीकत्वमेव तत्त्वमाहुः । तथा च यः प्रत्ययः स बाह्यानालम्बनो यथा स्वप्नादिप्रत्ययः, प्रत्ययश्चायं जाग्रतः स्तम्भादिप्रत्ययः, निरालम्बनता हि प्रत्ययत्वमात्रानुबन्धिनी स्वप्नादिषु दृष्टा, जाग्रतः प्रत्ययस्यापि प्रत्ययत्वमेव स्वभावः, स यदि निरालम्बनत्वं परित्यजति तदा स्वभावमेव परित्यजेत् । ननु सर्वप्रत्ययानामनालम्बनत्वे मिहेतुदृष्टान्तादिप्रत्ययानामनालम्बनत्वम्, ततश्च धमिहेत्वाद्यभावान्नानुमानप्रवृत्तिः। अथ ते सालम्बनास्तैरेवास्य हेतोय॑भिचारः ? नैवम्, तेषां बहिरनालम्बनानां संवृतिमात्रेणानुमानप्रवृत्तिहेतुत्गात् । दृष्टा ह्यविद्यातो विद्याप्राप्तिः, यथा लिप्यक्षरेभ्यो वर्णप्रतीतिः, वर्णप्रतिपादकरेखादयोऽपि
कोई (माध्यमिक) बौद्ध मतावलम्बी कहते हैं कि ज्ञानाकार से वस्तुओं का प्रतिभास भी अनादि वासना से ही होता है, अतः इसका निर्वचन भी असम्भव है। अतः 'विचाराक्षमत्व' रूप 'शून्यत्व' ही तत्त्व है। जितने भी ज्ञान हैं, उनका कोई बाह्य वस्तु विषय नहीं है । जैसे कि स्वप्न ज्ञान का कोई बाह्य विषय नहीं होता । जाग्रदवस्था के पुरुषों का स्तम्भादि विषयक ज्ञान भी केवल ज्ञान होने के नाते ही बाह्य विषय शून्य है। क्योंकि स्वप्नज्ञान को केवल ज्ञान होने के नाते ही विषयशून्य और ज्ञान दोनों समझा जाता है। अतः जागते हुए व्यक्ति का ज्ञान भी केवल ज्ञानत्व स्वभाव का ही है, उसका भी स्वभाव सविषयकत्व नहीं है, (अर्थात् स्वप्न ज्ञान की तरह जाग्रदवस्था का ज्ञान भी निविषयक ही है, जिससे सभी विषयों की सत्ता नहीं सिद्ध की जा सकती). अतः स्तम्भादि विषयक ज्ञान यदि निविषयकत्व को छोड़ेगा तो अपने ज्ञानत्व को भी खो बैठेगा। (प्र०) अगर सभी ज्ञान निविषयक ही हों उो (आपके अभिमत का साधक) पक्ष, हेतु, दृष्टान्तादि विषयक ज्ञान भी विषय शून्य ही होंगे, फिर पक्ष साध्य प्रभृति के अभाव से (आपको अभिमत) अनुमिति की ही प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। वे पक्षादि यदि सविषयक हैं तो फिर उन्हीं ज्ञानों में (निविषयकत्व का साधक ज्ञानत्व रूप) आपका हेतु व्यभिचरित होगा । (उ०) नहीं, यह बात नहीं है, क्योंकि वे पक्षादि विषयक ज्ञान वस्तुतः निविषयक होने पर भी केवल संवृति (अविद्या) के कारण ही अनुमानप्रवृत्ति के कारण हैं। अविद्या से भी विद्या (यथार्थज्ञान) की उत्पत्ति देखी जाती है। जैसे कि लिपि से वर्गों की प्रतीति होती है । (प्र०) वर्ण को ज्ञापक रेखादि रूप वे लिपियां भी तो स्वरूपतः सत्य ही हैं ? (उ०) यह सत्य है कि वे रेखादि रूप से सत्य हैं, किन्तु वे अपने रेखात्व रूप से तो वर्गों के ज्ञापक नहीं हैं । उन रेखाओं में जब ककार। दि वर्णों का आरोप किया जाता है, तब उसी आरोपित रूप से वे वर्ण की प्रतीति को उत्पन्न करती हैं। अतः स्वरूपतः सत्य होते हुए भी
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