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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली (समानजातीययोर्घटपटयोर्वा सन्निकर्षं संयोगे सति चक्षुःसंयुक्तयोर्द्रव्ययोः प्रत्येक समवेतौ यावेकगुणौ तयोः समवेतं यदेकत्वं सामान्यं तस्मिन् ज्ञानमुत्पद्यते । विशेषणज्ञानं विशेष्यज्ञानस्य कारणम् । एकगुणयोश्च विशेष्योरेकत्वसामान्य विशेषणम्, तेनादौ तत्रैव ज्ञानं चिन्त्यते। न च प्रत्यासत्तिमन्तरेण चाक्षुषं ज्ञानं जायत इत्येकत्वसामान्यस्येन्द्रियेण संयुक्तसमवेतसमवायलक्षणः सम्बन्धो दर्शितः । एवं ज्ञानोत्पत्तौ भूतायामेकत्वसामान्यात् तस्यैकत्वस्यैकगुणाभ्यां सम्बन्धाज्ञानाच्च एकगुणयोरनेकविषयिण्युभयैकगुणालम्बिन्येका बुद्धिरुत्पद्यत इति, एकं चक्षुरिन्द्रियमन्तःकरणेन युगपदुभयोरधिष्ठानासम्भवादेकस्यैव सर्वदा विषयग्राहकत्वे द्वितीयस्य कल्पनावैयर्थ्यात् । तस्योभाभ्यां गोलकाभ्यां रश्मयो निस्सरन्ति विषयैश्च सह सम्बन्ध्यन्ते, प्रदीपस्येव गुहान्तर्गतस्य गवाक्षविवराभ्याम् । तत्रान्तःकरणं साक्षाच्चक्षुरधितिष्ठति, न विषयसम्बन्धात्, बहिनिर्गमनाभावात्, चक्षुरधिष्ठानादेव
आत्मा को आँखों से समान जाति के दो द्रव्यों में अर्थात् दो घटों में ( अथवा) असमानजातीय दो द्रव्यों अर्थात् घट और पट के 'संनिकर्ष' अर्थात् संयोग होने के बाद कथित समानजातीय एवं असमानजातीय दोनों प्रकार के दोनों द्रव्यों के प्रत्येक में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाली एकत्वसंख्यागत जाति रूप एकत्व ( अर्थात् एकत्वत्व ) का ज्ञान होता है। विशेषण का ज्ञान विशेष्यज्ञान ( विशिष्ट ज्ञान ) का कारण है। संख्यारूप दोनों एकत्वों से अभिन्न विशेष्य का जातिरूप एकत्व ( एकत्वस्व ) विशेषण है, अतः सब से पहिले उसी का विचार करते हैं। (विषयों के साथ ) चक्षु का सम्बन्ध रहे बिना चाक्षुष ज्ञान नहीं हो सकता, अतः सब से पहिले जातिरूप एकत्व के साथ (चक्षु का ) संयुक्तसमवेतसमवायरूप सम्बन्ध ही दिखलाया गया है। इस प्रकार जाति रूप एकत्वविषयक ज्ञान की उत्पत्ति हो जाने पर उस सामान्य का अपने आभयों के साथ सम्बन्ध एवं इस सम्बन्ध के ज्ञान, इन दोनों से दोनों 'एक' नाम की संख्याओं में ( अलग अलग ) 'एक' (संख्या) गुण विषयक एकबुद्धि ( अर्थात् 'अयमेकः' अयमेकः' इस आकार ) की बुद्धि की उत्पत्ति होती है। एक ही समय एक ही चक्षुरिन्द्रिय अन्तःकरण के द्वारा दो विषयों का अधिष्ठान नहीं हो सकती। एवं अगर एक ही चक्षु से प्रत्यक्ष की उत्पत्ति मानें तो दूसरे चक्षु की कल्पना हो व्यर्थ हो जायगी। अतः ( यही जानना पड़ेगा कि ) जिस प्रकार गवाक्ष के छिद्रों से घर के भीतर के दीप की रश्मियाँ घटादि के साथ सम्बद्ध होती हैं, उसी प्रकार चक्षु के दोनों गोलकों से रश्मियाँ निकल कर विषयों के साथ सम्बद्ध होती हैं। अन्तःकरण का साक्षात् सम्बन्ध चक्षु के साथ ही होता हैं, विषयों के साथ नहीं। क्योंकि वह किसी भी प्रकार बाहर नहीं निकल सकता। (विषयों से सम्बद्ध) चक्षु स्वरूप
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