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प्रकरणम् ]]
भाषानुवादसहितम्
२६१
प्रशस्तपादभाष्यम
का नाश मान लेने पर सी नहीं हो सकेगा, क्योंकि प्रत्यक्ष के द्वारा केवल विद्यमान विषय ही प्रकाशित होते हैं । अतः यही कहना पड़ेगा कि उक्त प्रत्यक्ष के समय तक द्वित्व का नाश नहीं होता। तस्मात् सहानवस्थान रूप विरोध पक्ष में जो द्वे द्रव्ये' इस ज्ञान की अनुत्पत्तिरूप आपत्ति दी गयी है, वह अयुक्त है। इसी प्रश्न का समाधान ग्न, आशूत्पत्तेः' इत्यादि से देते हैं। ( उ० ) नहीं, अर्थात् कथित द्रव्यप्रत्यक्ष के समय द्वित्व का नाश अवश्य ही हो जाता है। 'द्वे द्रव्ये' यह एक ही विशिष्ट ज्ञान नहीं है. किन्तु अलग अलग दो ज्ञान हैं। अतिशीघ्रता से उत्पन्न होने के कारण 'द्वे' 'द्रव्ये' एवं 'द्व द्रव्ये' ये तीन ज्ञान 'द्वे द्रव्ये' इस आकार के एक विशिष्ट ज्ञान की तरह मालूम पड़ते हैं। जैसे कि 'शब्दवदाकाशम्' यह एक विशिष्टज्ञान नहीं है, किन्तु 'शब्दः', 'आकाशः' एवं 'शब्दवत्' ये तीन ज्ञान हैं, फिर भी क्रमशः अतिशीघ्रता से उत्पन्न होने के कारण उन तीनों ज्ञानों में एक ही विशिष्ट ज्ञान की तरह व्यवहार होता है, इसी प्रकार 'वे द्रव्ये' यहाँ भी समझना चाहिए।
न्यायकन्दली
द्वित्वप्रत्यक्षज्ञानस्य पूर्वक्षणवत्येवार्थो विषयः, अस्ति च 'द्वे द्रव्ये' इति ज्ञानोत्पादात् पूर्वस्मिन् क्षणे द्वित्वमिति तदुपसर्जनता भवत्येव । इदं त्विह वक्तव्यम्-द्वे द्रव्ये इति ज्ञाने यथा द्रव्यं प्रतिभाति तथोपसर्जनीभूतं द्वित्वमपि, न चाविद्यमानस्य द्वित्वस्य प्रतिभासो युक्तः । तस्मादेतदविनष्टमेव तदानीं विशेष्यज्ञानस्यालम्बनं स्यात्, तदवभासमानतालक्षणत्वात् तदालम्बनताया इत्यत आह-नाशूत्पत्तेरिति । द्रव्यज्ञानकाले द्वित्वं न विनष्टमित्येतन्न, आशूत्पत्तद्वित्वगुणज्ञानस्य द्रव्यज्ञानस्य च
नहीं ( यह बात नहीं है ), क्योंकि द्वित्व के सभी प्रत्यक्षों में पहिले क्षण में विद्यमान द्वित्व ही प्रतिभासित होता है। प्रकृत में भी 'द्वे द्रव्ये' इस ज्ञान से पहिले क्षण में दित्व की सत्ता तो है ही, अतः द्वित्व में उक्त उपसर्जनता के रहने में कोई बाधा नहीं है । इस प्रसङ्ग में यह आक्षेप किया जाता है कि 'द्वे द्रव्ये' इस ज्ञान में द्रव्य को तरह द्वित्व का भी प्रतिभासित होना कहा गया है, सो ठीक नहीं मालूम पड़ता, क्योंकि उक्त प्रत्यक्षात्मक ज्ञान में अविद्यमान द्वित्व का प्रतिभास कैसे होगा ? अत: उक्त ज्ञान का अविनष्ट द्वित्व ही अवलम्बन हो सकता है. क्योंकि उस ज्ञान में प्रतिभासित होना ही उस ज्ञान का अवलम्बन होना है। इसी आक्षेप का समाधान 'न, आशूत्पत्तेः' इत्यादि भाष्य से कहते हैं। अर्थात् 'द्वे द्रव्ये' इस ज्ञान के समय द्वित्व का नाश हो जाता है, किन्तु आशूत्पत्ति' से ( उक्त ज्ञान की उपपत्ति होती है ), अर्थात्
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