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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
युगपदेवस्थानं प्रतिषिध्यते । नहि वध्यघातकविरोधे ज्ञानयोर्युगपदुत्पत्तिरविनश्यतोश्च युगपदेवस्थानमस्तीति ।
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से एक ही क्षण में अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति एवं अगले ही क्षण में विनष्ट न होनेवाले ज्ञानों की स्थिति खण्डित होती है । वध्यघातक पक्ष में एक क्षण में अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति एवं अविनष्टावस्थावाले अनेक ज्ञानों की स्थिति नहीं ( माननी पड़ती ) है |
न्यायकन्दली
प्रतिषिध्यत इति । वध्घातकपक्षे च न ज्ञानयोर्युगपदुत्पादोऽस्ति, नाप्यविनश्यतोः सहावस्थानमेकस्योत्पादे द्वितीयस्य विनश्यद्रूपत्वादित्याह - न हीति । 'इति' शब्दः समाप्ति कथयति ।
अयि भोः सर्वमिदमुत्पत्त्यादिनिरूपणं द्वित्वस्यानुपपन्नम्, तत्सद्भावे प्रमाणाभावात् । द्वे इति ज्ञानं प्रमाणमिति चेत् ? न, ग्राह्यलक्षणाभावात् । तथा हार्थो ज्ञानग्राह्यो भवन्नुत्पन्नो भवति, अनुत्पन्नो वा ? उभयथाप्यनुपपत्तिरनुत्पन्नस्यासत्वात्, उत्पन्नस्य च स्थित्यभावात् । अतीत एवार्थो ज्ञानग्राह्यस्तज्जनकत्वादिति चेत् ? न, वर्तमानतावभासविरोधादिन्द्रियस्यापि ग्राह्यत्वप्रसङ्गाच्च । ईदृश एवार्थस्य स्वकारणसामग्रीकृतः स्वभावो येन जनकत्वाविशेषेऽप्ययमेव ग्राह्यो नेन्द्रियादि
नहीं है, एवं विनाश्यविनाशकभावानापन्न परस्पर निरपेक्ष अनेक ज्ञानों की स्थिति की भी आपत्ति नहीं है, क्योंकि एक ( विनाशक ) ज्ञान की उत्पत्ति के समय दूसरे ( विनाश्य ) ज्ञान की विनाशावस्था हो जाती है । यही बात 'नहि' इत्यादि से कहते हैं । इस 'इति' शब्द का अर्थ समाप्ति है ।
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इन सबों का निरूपण ही गलत उ० ) 'द्वे' ( यह दो है ) इस
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( प्र० ) द्वित्व की उत्पत्ति या नाश अथवा ज्ञान, है, क्योंकि द्वित्वादि संख्याओं की सत्ता ही प्रमाणशुन्य है । आकार का ज्ञान ही द्वित्व संख्या की सत्ता में प्रमाण है । ( प्र० ) नहीं, क्योंकि 'द्वित्व' ग्राह्यलक्षण ( ज्ञान से गृहीत होने योग्य ) नहीं है । ( उ० ) अभिप्राय यह है कि उत्पन्न वस्तुओं का या अनुत्पन्न वस्तुओं का ही जान से ग्रहण होगा। इन दोनों में से किसी भी प्रकार द्वित्वादि विषयक ज्ञान की उपपत्ति नहीं हो सकती है, क्योंकि उत्पन्न वस्तुओ की स्थिति रहती हैं, एवं अनुत्पन्न वस्तुओं का अस्तित्व ही नहीं होता है । ( उ० ) अतीत वस्तु ही ज्ञान से गृहीत होता है, क्योंकि वही अर्थज्ञान का कारण है । ( प्र० ) नहीं, क्योंकि इससे वर्त्तमानत्व की स्वाभाविक प्रतीति विरुद्ध हो जाएगी । एवं ( ज्ञान के कारण होने से ही अगर ज्ञान से ग्राह्य भी हो तो फिर ) इन्द्रियो के भी ( प्रत्यक्ष ) ज्ञान की आपत्ति होगी । यह कहें कि ( उ० ) वस्तुओं के अपने उत्पादक कारणों से यही स्वभाव प्राप्त