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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् समूहज्ञानस्य संस्कारहेतुत्वात् । समूहज्ञानमेव संस्कारकारणं नालोचनज्ञानमित्यदोषः ।
क्योंकि समूह ज्ञान अर्थात् विशिष्ट ज्ञान संस्कार का कारण हैं। अर्थात् समूह ज्ञान ही संस्कार का कारण है, आलोचन ( निर्विकल्पक ) ज्ञान नहीं, अतः उक्त आपत्ति नहीं है। अत: उक्त 'द्वे द्रव्ये' इस ज्ञान का अनुत्पत्तिरूप दोष नहीं है।
न्यायकन्दली तहि वध्यघातकपक्षेऽपि तदनुत्पत्तिः। अत्रोपपत्तिमाह-सामान्यबुद्धिसमकालं संस्कारादपेक्षाबुद्धिविनाशादिति । यथापेक्षाबुद्धिरुत्पन्ना दित्वं जनयति तथा संस्कारमपि, स च तस्या विनाशकः । तेन संस्कारस्य द्वित्वस्य चोत्पादे द्वित्वसामान्यज्ञानस्य चोत्पद्यमानतापेक्षाबुद्धविनश्यत्तेत्येकः कालः। ततो द्वित्व. सामान्यज्ञानस्य चोत्पादो गुणबुद्धश्चोत्पद्यमानतापेक्षाबुद्धविनाशो द्वित्वस्य विनश्यत्तेत्येकः कालः। ततो गुणबुद्धरुत्पादो द्वित्वस्य विनाश इति क्षणान्तरे तदपेक्षस्य द्वे इति ज्ञानस्यानुत्पाद इति वध्यघातकपक्षेऽपि तुल्यो दोषः। समाधत्ते-न, समूहज्ञानस्य संस्कारहेतुत्वादिति । एतदेव विवृणोति-समूह इत्यादिना। समूहजानं द्वित्वगुणविशिष्टद्रव्यज्ञानमेव संस्कारं करोति, नालोचनज्ञानम्, न निर्विकल्पकमपेक्षाज्ञानम्, अतो नास्य संस्काराद्विनाश इत्यर्थः ।
इसी विषय में 'समानबुद्धिममकालम्' इत्यादि ग्रन्थ लिखा गया है। अभिप्राय यह है कि जैसे अपेक्षाबुद्धि स्वयं उत्पन्न होकर द्वित्व को उत्पन्न करती है वैसे ही संस्कार भी ( स्वयं उत्पन्न होकर ही द्वित्व को उत्पन्न करता है), एवं संस्कार अपेक्षाबुद्धि का विनाशक भी है, अतः संस्कार और द्वित्व इन दोनों के उत्पन्न हो जाने पर सामान्यरूप द्वित्व (द्वित्वत्व ) विषयक ज्ञान की उत्पद्य मानता (उक्त ज्ञान के सभी कारणों का एकत्र होना) और अपेक्षाबुद्धि की विनश्यत्ता, ( अर्थात् विनाश के सभी कारणों का एकत्र होना) इतने काम एक समय में होते हैं ( यह मानना पड़ेगा )। इसके बाद गुण रूप द्वित्व का ज्ञान और द्वित्व का नाश, ये दो काम होते हैं । अतः इसके बाद के क्षण में द्वित्व से उत्पन्न होनेवाले 'द्वे द्रव्ये' इस ज्ञान की उत्पत्ति नहीं होगी। इस प्रकार वध्यघातक पक्ष में भी द्रव्यज्ञान का उक्त अनुत्पत्ति रूप दोष तो समान ही है : “न, समूहज्ञानस्य संस्कारहेतुत्वात्" इत्यादि से इस आक्षेप का समाधान कर 'समूह' इत्यादि से इसकी व्याख्या करते हैं । अभिप्राय यह है कि 'समूहज्ञान' अर्थात् द्वित्वगुण-विशिष्ट द्रव्य का ज्ञान ही संस्कार का उत्पादक है, आलोचन (केवल विशेष्य) ज्ञा र नहीं, निर्विकल्पकज्ञान रूप अपेक्षाज्ञान भी नहीं, अतः संस्कार
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