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प्रकरणम् ]]
भाषानुवादसहितम्
२८९
प्रशस्त पादभाष्यम् द्विशेषणसम्बन्धमन्तरेण भवितुमर्हति । तथा चाह सूत्रकार:- "समवायिनः श्वैत्याच्छवैत्यबुद्धेः श्वेते बुद्धिस्ते कार्यकारणभूते" इति । से, अर्थात् ज्ञानरूप एक अर्थ में विशेष्य और विशेषण के सामानाधिकरण्य मात्र से ( फलतः दोनों के एक ज्ञान में विषय होने मात्र से ) विशेष्य ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती। जैसा कि सूत्रकार ने कहा है कि 'समवायी' ( अर्थात् विशेष्य ) की शुक्लता से द्रव्य में शुक्लता को प्रतीति होती है, क्योंकि इन दोनों ( विशेषण एवं विशेष्य के ज्ञानों ) में एक कारण और दूसरा कार्य है,
न्यायकन्दली
परिहारमाह-न, विशेष्यज्ञानत्वादिति । ज्ञानमात्रादेव द्वे द्रव्ये इति ज्ञानोत्पत्तिरित्येतन्न, कस्मात् ? विशेष्यज्ञानत्वात् । भवतु विशेष्यज्ञानं तथापि कुतो ज्ञानमात्रान्न भवति? तत्राह-नहीति। विशेषणं विशेष्यस्य स्वरूपं विशेष्यानुरञ्जकं विशेष्ये स्वोपसर्जनताप्रतीतिहेतुरिति यावत् । न चाविद्यमानस्यानुरञ्जकत्वं स्वोपसर्जनताप्रतीतिहेतुत्वं युक्तम्, अतो न विशेष्यज्ञानं विशेषणसम्बन्धमन्तरेण भवितुमर्हतीति विशेष्यज्ञानं सारूप्याद्विशेषणानुक्तत्वाद् विशेषणसम्बन्धमन्तरेण भवितुं नार्हति । सूत्रार्थे सूत्रकारानुमति दर्शयति-तथा चाहेति । समवायिनः
तो वाय्वभ्रसंयोग को अनुमिति से पहिले विद्यमान ही है, क्योंकि ( प्रतियोगीभूत ) वस्तुओं की स्वरूपतः उत्पत्ति के बिना प्रागभाव का विनाश नहीं होता है, अतः मेरी ही व्याख्या ठीक है।
'न विशेष्यज्ञानत्वात्' इत्यादि ग्रन्थ से उक्त आक्षेप का समाधान करते हैं। यह बात नहीं है कि (द्वित्व के नष्ट हो जाने पर भी) केवल द्वित्व के ज्ञान से ही
द्वे द्रव्ये' इस ( विशेष्य ) ज्ञान की उत्पत्ति होगी (प्र०, क्यों ? ( उ०) चूंकि वह विशेष्य ज्ञान है । ( प्र० ) रहे वह विशेष्यज्ञान ही फिर भी ( हेतु के न रहने पर भी हेतु के ) केवल ज्ञान से ही उसकी उत्पत्ति क्यों नहीं होगी ? 'नहि' इत्यादि से इसी प्रश्न का समाधान करते हैं । ( अर्थात् ) विशेषण विशेष्य (विशिष्ट ) का स्वरूप' है, अर्थात् विशेष्य का 'अनुरञ्जक' है । फलतः अपने में उपसर्जनत्व ( विशेषणत्व ) प्रतीति का कारण है । यह अनुरजकता या 'स्व' में उपसर्जनता प्रतीति की कारणता किसी अविद्यमान वस्तु में नहीं हो सकती, अनः विशिष्टज्ञान में ( विशेष्यज्ञान ज्ञानत्व रूप से अविशिष्ट ज्ञान का ) मारूप्य रहने के कारण ही विशेषण सम्बन्ध के बिना यह अनुरजकता नहीं हो सकती। 'नथा चाह' इत्यादि सन्दर्भ से इस प्रसङ्ग में सूत्रकार की अनुमति दिखलाते हैं । द्रव्यविशेष में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले श्वेत गुण से ही श्वैत्यबुद्धि अर्थात्
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