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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[गुणे संख्या
प्रशस्तपादभाष्यम् एतेन त्रित्वाद्युत्पत्तिरपि व्याख्याता । एकत्वेभ्योऽनेकविषयबुद्धिसहितेभ्यो निष्पत्तिरपेक्षाबुद्धिविनाशाच्च विनाश इति । इसी से ( अनेक द्रव्यों में रहनेवाली) त्रित्वादि संख्याओं की भी व्याख्या समझनी चाहिए । (फलतः अनेक द्रव्यों में रहनेवाली संख्याओं की उत्पत्ति ) अनेक विषयक बुद्धि का साथ रहने पर अनेक एकत्वों से होती है, एवं अपेक्षाबुद्धि के विनाश से इन ( अनेकद्रव्या संख्याओं) का विनाश होता है।
न्यायकन्दली भावात् । अन्यथा शरमुक्तिसमकालं निष्ठुरपृष्ठाभिघातादभिपतितस्य धन्विनः क्षणान्तरभाविनि लक्ष्यव्यतिभेदे कर्त त्वं न स्यात् । तदनन्तरं द्रव्यज्ञानाद् गुणबुद्धेविनाशः, संस्कारस्योत्पद्यमानता, ततः संस्कारस्योत्पादो · द्रव्यबुद्धेविनश्यत्ता, क्षणान्तरे संस्काराद् द्रव्यबुद्धविनाशः, द्रव्यबुद्धिविनाशकारणत्वं च, संस्कारस्य नद्भावभावित्वादन्यथाऽसम्भवाच्च ।
एतेन त्रित्वाद्युत्पत्तिरपि व्याख्याता । एतेन द्वित्वोत्पत्तिविनाशनिरूपणप्रक्रमेण त्रित्वादीनामुत्पत्तिाख्याता । तमेव प्रकारं दर्शयति-एकत्वेभ्योऽनेकविषयबुद्धिसहितेभ्यो निष्पत्तिरपेक्षाबुद्धिविनाशाच्च विनाश इति । व्यापार के रहने से भी व्यवधान नहीं माना जाता। अगर ऐसी बात न हो तो फिर तीर छोड़ने के समय यदि कोई धनुषधारी पीठ में पाये हुए किसी निष्ठुर आघात से गिर जाय और उस छोड़े हुए तीर से आगे क्षण में लक्ष्य का छेदन भी हो जाय, तब उस धनुषधारी में उस छेदन क्रिया के कर्तृत्व का व्यवहार न होगा, ( क्योंकि छेदन क्रिया की उत्पत्ति के समय उसकी सत्ता नहीं है ) । इसके बाद 'द्वे द्रव्ये' इस आकार के द्रव्यज्ञान से गुण (द्वित्व) बुद्धि का नाश होता है, एवं संस्कार के कारण ऐकत्र होते हैं । इसके दूसरे क्षण में संस्कार की उत्पत्ति होती है, एवं उक्त द्रव्यबुद्धि के विनाशक और कारणों का संवलन होता है । इसके बाद के क्षण में संस्कार से उक्त ' द्रव्ये' इस बुद्धि का विनाश होता हैं। संस्कार के रहने से ही उक्त बुद्धि का नाश होता है, एवं संस्कार को छोड़ कर और कोई उसके विनाश का कारण सम्भव भी महीं है। इन्हीं दोनों से यह समझना चाहिए कि संस्कार ही उक्त द्वित्वविषयक बुद्धि के विनाश का कारण है।
एतेन त्रित्वाद्युत्पत्तिरपि व्याख्याता । 'एतेन' द्वित्व की उत्पत्ति एवं विनाश के उक्त उपपादन क्रम से त्रित्वादि और अनेक द्रव्यों में ही रहनेवाली ( अनेकद्रव्या ) और संख्याओं की भी व्याख्या हो गयी समझनी चाहिए। त्रित्वादि संख्याओं की उत्पत्ति की ही रीति 'एकत्वेभ्योऽनेकबुद्धिसहितेभ्यो निष्पत्तिरपेक्षाबुद्धिविनाशाच्च विनाशः' इत्यादि से दिखलायी गयी है।
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