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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
२८१
प्रशस्तपादभाष्यम् तदनन्तरं द्वे द्रव्ये इति द्रव्यज्ञानस्योत्पादो द्वित्वस्य विनाशो द्वित्व. गुणबुद्धेविनश्यत्ता द्रव्यज्ञानात् संस्कारस्योत्पद्यमानतेत्येकः कालः । तदनन्तरं द्रव्यज्ञानाद् द्वित्वगुणबुद्धविनाशो द्रव्यबुद्धेरपि संस्कारात् । संवलन, द्रव्यज्ञान से उसी विषयक संस्कार की उत्पादक सामग्री का संवलन-इतने काम एक समय में होते हैं। इसके बाद उक्त द्रव्य विषयक ज्ञान से गूणरूप द्वित्व विषयक बुद्धि का विनाश और उस द्रव्य विषयक बुद्धि का भी संस्कार से विनाश हो जाता है ।
न्यायकन्दली
द्वित्वगुणश्च तस्य ज्ञानं च सम्बन्धश्चेति योजना । तदनन्तरं द्वे द्रव्ये इति द्रव्यज्ञानस्योत्पादो द्वित्वस्य विनाशो गुणबुद्धेविनश्यत्तेत्येक: काल: । यद्यपि द्वे द्रव्ये इति ज्ञानोत्पत्तिकाले द्वित्वं नास्ति, तथापि तदस्य कारणम्, कार्योत्पत्तिकाले कारणस्थितेरनुपयोगात् । कार्योत्पत्त्यनुगुणव्यापारजनकत्वं हि कारणस्य कारणत्वम् । स चेदनेन कृतः, किमस्य कार्योत्पत्तिकाले स्थित्या ? व्यापारादेव कार्योत्पत्तिसिद्धः। न त्वेवं सति तस्याकारकत्वम्, व्यापारद्वारेण तस्यैव हेतुत्वात् । न चैवं सति भाक्तं कारकत्वम् ? स्वव्यापारेण व्यवधानाज्ञान 'द्वे द्रव्ये' इस प्रकार के ) द्रव्य विषयक ज्ञान का उत्पादक भी है। अतः गुण स्वरूप द्वित्व विषयक बुद्धि की उत्पत्ति एक (सामान्य रूप द्वित्व विषयक ज्ञान ) की 'विनश्यत्ता एवं दूसरे ( ' द्रव्ये इस द्रव्य ज्ञान' ) की 'उत्पद्यमानता' दोनों ही होंगी। 'द्वित्वगुणज्ञान सम्बन्धेभ्यः' इस समस्त वाक्य का विग्रह इस प्रकार है-द्वित्वगुणश्च, तस्य ज्ञानञ्च, सम्बन्धश्च । इसके बाद के एक समय में 'द्वे द्रव्ये' इस द्रव्यज्ञान की उत्पत्ति, द्वित्व का विनाश एवं गुणस्वरूप द्वित्वविषयक बुद्धि की विनश्यत्ता ये तीन काम होते हैं । यद्यपि 'दे द्रव्ये' इस ज्ञान के उत्पत्तिकाल में द्वित्व की सत्ता नहीं रहती, फिर भी द्वित्व उस ज्ञान का कारण अवश्य है। कारण होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह कार्य के उत्पत्ति क्षण तक रहे ही, क्योंकि कार्य के उत्पादन में उस समय तक कारण की सत्ता का कुछ भी उपयोग नहीं है । कारण का इतना ही स्वरूप है कि कार्य की उत्पत्ति के अनुकूल किसी व्यापार को वह उत्पन्न कर दे। यह (व्यापारोत्पादनरूप) काम अगर इस (द्वित्व ) ने कर दिया तो फिर कार्य की उत्पत्ति के समय उसकी सत्ता रहे ही इससे क्या प्रयोजन ? द्वित्व से उत्पन्न व्यापार के द्वारा 'द्वे द्रव्ये' इस ज्ञानस्वरूप कार्य की उत्पत्ति तो हो ही जाएगी, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वह ( व्यापारी द्वित्व ) कारण ही नहीं है, वह भी (उत्पत्तिक्षण के अव्यवहित पूर्व क्षण में न रहने पर भी) व्यापार के उत्पादन के द्वारा कारण अवश्य हैं। (प्र०) तो फिर द्वित्व में व्यापार के द्वारा कारणत्व के रहने से कारकत्व का प्रयोग गौण है ? (उ० ) नहीं, क्योंकि मध्य में
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