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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
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[ गुणे संख्या
तर्कानुगुणसहकारिलाभात्
स्मृतिसन्निहितानां समवायिकारणत्वमविरुद्धम् । न चैवं सति सर्वत्र तथाभाव:, यथादर्शनं व्यवस्थापनात् । अतीतस्य जनकत्वेSनुभवस्यैव स्मृतिहेतुत्वसम्भवे संस्कारकल्पनावैयर्थ्यमिति चेन्न, निरन्वयप्रध्वस्तस्यानुपस्थितस्यापि कारकत्वात्, तदुपस्थापनाकल्पनायां तु संस्कारसिद्धिः । तथा चान्त्यवर्णप्रतीतिकाले पूर्ववर्णानां विनष्टानामपि स्मृत्युपनीतत्वादर्थप्रतीतौ निमित्तकारणत्वमस्त्येव । यथेदं तथा समवायिकारणत्वमपि केषाञ्चिद्भविष्यति । यथा च संस्कारसचिवस्य मनसो बाह्ये स्मृत्युत्पादनसामर्थ्यमेवं प्रत्यक्षानुभवजननसामर्थ्यमपि दृष्टत्वादेषितव्यम् । एवं च सति नान्धबधिराद्यभावो बाह्येन्द्रियप्रवृत्त्यनुविधायित्वात् ।
तत्र
यत्र विनष्ट एव पराश्रये स्मृत्युपनीते द्वित्वमुत्पद्यते, स्मृतिलक्षणापेक्षा बुद्धिविनाशादेवास्य विनाशः, यत्र त्वाश्रये विद्यमाने तदुत्पन्नं अतः स्मृति के द्वारा समीप आयी हुई विनष्ट पिपीलिकादि वस्तुओं को भी अगर तर्कसम्मत सहकारी मिले तो वे भी समवायिकारण हो सकती हैं। इसमें कोई विरोध नहीं है । वस्तुस्थिति के अनुसार ही कल्पना की जाती है अतः उपर्युक्त दृष्टान्त ( मात्र ) से यह कल्पना करना सङ्गत नहीं है कि विनष्ट हुए समवायिकारणों से ही सभी कार्य हों । ( प्र० ) अतीत वस्तु भी अगर कारण हो तो फिर अतीत अनुभव से ही स्मृति की उत्पत्ति हो ही जाएगी, इसके लिए संस्कार की कल्पना ही व्यर्थ है । ( उ० ) जड़मूल से विनष्ट वस्तुओं को जब तक कोई विद्यमान दूसरी वस्तु ( कारण होने के लिए ) उपस्थित न करे तब तक वह कारण नहीं हो सकती । प्रकृत में अगर अनुभव को उपस्थित करनेवाले की कल्पना करें तो फिर संस्कार की ही कल्पना होगी । ( नाम में विवाद की सम्भावना रहने पर भी ) संस्कार ( वस्तु ) की सिद्धि हो ही जाएगी, अतः जिस प्रकार ज्ञान के समय विनष्ट भी पहिले के वर्णं वाक्य के अन्तिम अक्षर से स्मृति के द्वारा समीप लाये जाने पर शाब्दबोध के निमित्तकारण होते हैं, वैसे ही कुछ विनष्ट वस्तु समवायिकारण भी होंगे । वस्तुस्थिति के अनुसार ही तो कल्पना की जाती है, अतः प्रकृत में भी ऐसी कल्पना करेंगे कि संस्कार का साहाय्य पाकर मन जिस प्रकार बाह्य वस्तुओं के स्मरण को उत्पन्न करता है उसी प्रकार बाह्य वस्तुविषयक प्रत्यक्ष रूप अनुभव को भी ( मन ) उत्पन्न कर सकता है । इस ( मन से बाह्य वस्तु विषयक प्रत्यक्ष मान लेने ) से संसार से अन्धे और बहरों का लोप नहीं होगा, क्योंकि मन की प्रवृत्ति बाह्य इन्द्रियों के पीछे चलनेवाली है ।
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जहाँ किसी आश्रयरूप वस्तुओं के नष्ट होने पर भी स्मृति के द्वारा उन्हें समीप लाये जाने पर उन विनष्ट वस्तुओं में द्वित्व उत्पन्न होता है, ऐसे स्थलों में स्मृति रूप अपेक्षाबुद्धि के नाश से ही द्वित्व का नाश होता है । किन्तु जहाँ विद्यमान वस्तुओं