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२७१
प्रकरणम् ]
प्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली चानेकद्रव्या चेति । एक द्रव्यमाश्रयो यस्याः सा एकद्रव्या । अनेक द्रव्यमाश्रयो यस्याः सा अनेकद्रव्या । 'च' शब्दावेकद्रव्यानेकद्रव्ययोरन्योन्यसमुच्चयं प्रदर्शयन्तौ प्रकारान्तराभावं कथयतः । तत्रैकद्रव्यानेकद्रव्ययोर्मध्ये एकद्रव्याया: सलिलादिपरमाणुरूपादीनामिव नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः यथा सलिलपरमाणौ रूपरसस्पर्शा नित्यास्तथैकत्वसङ्कायपि । यथा च कार्यसलिलस्य रूपादयोऽनित्या आश्रयविनाशाद्विनश्यन्ति कारणगुणप्रक्रमेण च निष्पद्यन्ते, तथैकत्वसङ्घयापि ।
अनेकद्रव्या तु द्वित्वादिका परान्तिा। द्वित्वमादिर्यस्याः सा द्वित्वादिका, परार्धोऽन्तो यस्याः सा परार्धान्ता । यस्मिन्नियत्ताव्यवहारः समाप्यते स परार्द्धः । एकद्रव्यत्तिन्या एकत्वसङ्घयायाः सकाशाद् द्वित्वादेरनेकवृत्तित्वविशेषप्रतिपादनार्थः 'तु' शब्दः ।
निरूपण करते हैं। 'एक द्रव्यमाश्रयो यस्याः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार एक द्रव्य में ही रहने वाली संख्या को 'एकद्रव्या' कहते हैं । 'अनेकद्रव्यमाश्रयो यस्याः' इस विग्रह के अनुसार अनेक द्रव्यों में ही रहने वाली संख्या को 'अनेकद्रव्या' कहते हैं। दोनों ही 'च' शब्द से एक द्रव्य और अनेक द्रव्य इन दोनों के समुच्चय का बोध होता है एवं इन दोनों से तीसरी तरह की संख्या की सम्भावना का खण्डन भी होता है। 'तत्र' अर्थात् एकद्रव्या और अनेकद्रव्या इन दोनों प्रकार की संख्याओं में, एकद्रव्या संख्या का निर्णय (कार्यरूप) जलादि और परमाणु रूप जलादि की तरह समझना चाहिए। अर्थात् जिस प्रकार जलादि के परमाणुओं के रूपरसादि नित्य है, वैसे ही उनमें रहनेवाली एकद्रव्या संख्या भी नित्य है। एवं जिस प्रकार कार्यरूप जलादि के रूप रसादि अनित्य हैं (अर्थात् ) आश्रय के नाश से उनका नाश एवं कारणगुणक्रम से उत्पत्ति होती है, वैसे ही कार्यरूप जलादि में रहनेवाली एकत्व ( एकद्रव्या) संख्या भी ( आश्रय के नाश से ) विनष्ट होती है, एवं ( कारणगुणक्रम से) उत्पन्न भी होती है ।
'अनेकद्रव्या तु द्वित्वादिका परान्तिा ' ( इस वाक्य में प्रयुक्त ) 'दित्वादिका' शब्द का अर्थ वह संख्या समूह है जिस समूह के पहिले व्यक्ति का नाम द्वित्व है, क्योंकि द्वित्वादिका' इस समस्त वाक्य का विग्रह वाक्य 'द्वित्वमादिर्यस्याः' इस प्रकार का है। जिस संख्या (परम्परा ) की समाप्ति परार्द्ध में हो वही (संख्यासमूह) 'परार्द्धान्त' शब्द का अर्थ है, क्योंकि 'परार्द्धान्ता' इस समरत वाक्य का विग्रह वाक्य 'परार्धोऽन्तं यस्याः' इस प्रकार है। जहाँ संख्या के व्यवहार की समाप्ति हो उसी सख्या को 'परार्द्ध' कहते हैं। एकत्व संख्या केवल एक ही द्रव्य में रहती है, द्वित्वादि संख्यायें अनेक द्रव्यों में ही रहती हैं, अनेकद्रव्या संख्या में एकद्रव्या संख्या से इसी अन्तर को समझाने के लिए प्रकृत वाक्य में तु' शब्द है।
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