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२५६
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[गुणस्पर्श
प्रशस्तपादभाष्यम् स्पर्शस्त्वगिन्द्रियग्राह्यः क्षित्युदकज्वलनपवनवृत्तिस्त्वकसहकारी रूपानुविधायी शीतोष्णनुष्णाशीतभेदात त्रिविधः । अस्यापि नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः पूर्ववत् ।
त्वगिन्द्रिय से गृहीत होनेवाला गुण ही 'स्पर्श' है । यह पृथिवी, जल, तेज और वायु इन चार द्रव्यों में रहता है। स्पर्श त्वगिन्द्रिय ( से प्रत्यक्ष के उत्पादन में उसका ) सहायक है। रूप के आश्रयों में वह अवश्य ही रहता है । यह शीत, उष्ण और अनुष्णशीत भेद से तीन प्रकार का है। इसके नित्यत्व और अनित्यत्व की रीति पहिले की तरह जाननी चाहिए।
न्यायकन्दली पृथिव्यामेव वर्तते नान्यत्र । घ्राणसहकारी । स्वगतो गन्धो घ्राणस्य सहकारी। सुरभिरसुरभिश्चेति भेदः । अस्यापि पूर्ववदुत्पत्त्यादयो व्याख्याताः । यथा रसः पार्थिवपरमाणुष्वग्निसंयोगादुत्पत्तिविनाशवान् कार्ये कारणगुणपूर्वक आश्रयविनाशाद्विनश्यति, तथा गन्धोऽपि । नित्यत्वं पुनरस्य नास्त्येव ।
स्पर्शस्त्वगिन्द्रियग्राह्यः । त्वचि स्थितमिन्द्रियं त्वगिन्द्रियम् तेनैव स्पर्शो गृह्यते नान्येन । क्षित्युदमकज्वलनपवनवृत्तिः । एतेष्वेव वृत्तिरेव । त्वकसहकारी। स्पर्शस्त्वगिन्द्रियस्य विषयग्रहणसहकारी । रूपानुविधायी रूपमनुविधातुमनुगन्तु शीलमस्य, यत्र रूपं नियमेन तस्य सद्भावात् । शीतोष्णा
सिद्ध विषयों में नियोग या प्रतिषेध नहीं किया जा सकता। 'पृथिवीवृत्तिः' अर्थात् गन्ध पृथिवी में ही रहता है और किसी द्रव्य में नहीं। इसके सुरभि ( सुगन्ध ) एवं असुरभि ( दुर्गन्ध ) दो भेद है। 'अस्यापि पूर्ववदुत्पत्त्यादयो व्याख्याता:' अर्थात् जिस प्रकार पार्थिव परमाणुओं के रस की उत्पत्ति और विनाश दोनों ही अग्नि के संयोग से होते हैं एवं कार्य द्रव्यों में वे कारणगत गुणों से उत्पन्न होते हैं, एवं आश्रय के विनाश से विनय होते हैं उसी प्रकार से गन्ध में भी समझना चाहिए । गन्ध नित्य होता ही नहीं।
त्वचा में रहनेवाली इन्द्रिय ही 'स्वगिन्द्रिय' है। स्पर्श का प्रत्यक्ष इसी से होता है, और किसी इन्द्रिय से नहीं। 'क्षित्युदकज्वलनपवनवृत्तिः' अर्थात् पृथिवी, जल तेज और वायु इन चार द्रव्यों में वह रहता है और अवश्य रहता है । 'त्वक्सहकारी' ( त्वगिन्द्रिय में रहनेवाला स्पर्श ) त्वगिन्द्रिय के द्वारा स्पर्श के प्रत्यक्ष में सहायक है। 'रूपानुविधायी' 'रूपमनुविधातु शीलमस्य' इस व्युत्पत्ति के अनुसार उक्त वाक्य का यह अभिप्राय है कि स्पर्श रूपानुगमनशील है, अर्थात् जहाँ रूप रहता है वहाँ स्पर्श भी अवश्य ही रहता हैं। शीत, उष्ण और अनुष्णाशीत भेद से स्पर्श तीन प्रकार का है।
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