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प्रकरणम् ]
२६१.
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दलो
सङ्घयादीनां न पाकजत्वं तेषामविलक्षणत्वात् । ननु स्पर्शस्यापि वैलक्षण्यं न दृश्यते, सत्यम्, तथाप्यस्य पाकजत्वमनुमानात् । तच्च पृथिव्यधिकारे दर्शितम् । पाकजोत्पत्त्यनन्तरं परमाणषु क्रिया, न तु श्यामादिनिवृत्तिसमकालमेवेति रूपादिमत्येव द्रव्ये रूपादिमत्कार्यद्रव्यारम्भहेतुभूतक्रियादर्शनाद् दृश्यते । परमाणुक्रिया रूपादिमत्येव जायते रूपादिमत्कार्यारम्भहेतुभूतक्रियात्वात् पटारम्भकसंयोगोत्पादकतन्तुक्रियावत् ।
अथ कथं कार्यद्रव्ये एव रूपादीनामग्निसंयोगादुत्पादविनाशौ न कल्प्येते ? प्रतीयन्ते हि पाकार्थमुपक्षिप्ता घटादयः सर्वावस्थासु प्रत्यक्षाश्छिद्रविनिवेशितदृशा, प्रत्यभिज्ञायन्ते च पाकोत्तरकालमपि त एवामी घटादय इति, तत्राह .... न चेति । उपपत्तिमाह-सर्वावयवेष्विति । अन्तर्वहिश्च
रूप की उत्पत्ति होती है। इसी ( कारणगुणपूर्वक ) क्रम से घटादि स्थूल द्रव्यों में भी (पाकज ) रूप, रस गन्ध एवं स्पर्श की उत्पत्ति होती है। ( पके हुए घटादि में भी) संख्यादि गुणों की उत्पत्ति पाक से नहीं होती हैं, क्योंकि पाक के बाद भी संख्यादि गुणों में कोई अन्तर नहीं दीखता है। ( प्र०) स्पर्श में भी तो पाक के बाद कोई अन्तर नहीं दीखता है ? ( उ० ) हाँ, फिर भी पृथिवी निरूपण में इस अनुमान को दिखा चुके हैं, जिसके द्वारा पके हुए द्रव्यों के स्पर्शों में पाकजन्यत्व की सिद्धि होती है। जिस क्रिया के द्वारा रूपादि से युक्त द्रव्य की उत्पत्ति होती है वह क्रिया रूपादि से युक्त द्रव्यों में ही देखी जाती है, अतः यह समझना चाहिए कि पार्थिव परमाणुओं में पाक से रूपादि की उत्पत्ति के बाद ही उसमें (पके हुए द्वयणुक को उत्पन्न करनेवाली ) क्रिया उत्पन्न होती है, श्यामादि रूपों के नाशक्षण में नहीं। इस प्रकार यह अनुमान निष्पन्न होता है कि जिस प्रकार पट के कारणीभूत तन्तुओं के संयोग को उत्पन्न करने वाली क्रिया रूप से युक्त तन्तुओं में ही देखी जाती है, क्योंकि वह क्रिया ( तन्तुसंयोग के द्वारा ) रूप से युक्त पट स्वरूप द्रव्य का उत्पादक है, उसी प्रकार रूप से युक्त द्वथणुक. स्वरूप द्रव्य के उत्पादक दोनों परमाणुओं की क्रिया भी रूप से युक्त परमाणुओं में ही उत्पन्न होती है।
(प्र०) घटादि कार्य द्रव्यों में ही अग्निसंयोग से रूपादि का विनाश एवं उत्पत्ति क्यों नहीं मान लेते ? क्योंकि भट्ठी में पकने के लिए दिये गये घटादि का तीनों अवस्थाओं में प्रत्यक्ष होता है। एवं भट्टी के किसी छेद से झाँकनेवाले को यह वही घट है' इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा भी होती है। इसी आक्षेप के समाधान के लिए 'न च' इत्यादि. वाक्य लिखते हैं। 'सर्वावयवेषु' इत्यादि वाक्य से उक्त आक्षेप के खण्डन की ही युक्ति का प्रतिपादन करते हैं। अभिप्राय यह है कि भीतर और बाहर के सभी
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