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२५.
न्यायकन्दलीसंघलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणेरूपादि
प्रशस्तपादभाष्यम् रूपादीनां सर्वेषां गुणानां प्रत्येकमपरसामान्यसम्बन्धाद्रूपादिसंज्ञा भवन्ति ।
रूपादि सभी गुणों के रूपादि नाम इसलिए हैं कि उनमें ( रूपत्वादि ) अपर जातियों का सम्बन्ध है।
न्यायकन्दली सम्प्रति प्रत्येक गुणानां परस्परवैधर्म्यप्रतिपादनार्थमाह-रूपादीनामिति । रूपमादिर्येषां तेषामेकैकं प्रत्यपरजाते रूपत्वादिकायाः सम्बन्धाद्रपादिसंज्ञा रूपमिति रस इति संज्ञा भवन्ति । रूपत्वाद्यपरसामान्यकृता रूपादिसंज्ञा रूपादीनां प्रत्येकं वैधर्म्यम् । रूपत्वसामान्यं नास्तीति केचित, तदयुक्तम्, नीलपीतादिभेदेषु रूपं रूपमिति प्रत्ययानुवृत्तेः । चक्षुर्ग्राह्यतोपाधिकृता तदनुवृत्तिरिति चेन्न, तेषां रूपमित्येवं चक्षुषाऽग्रहणात् । तद्गाह्यतानिमित्तत्वे हि प्रहणादनन्तरं तथा प्रत्ययः स्यात् । चक्षुर्ग्राह्यता तद्ग्रहणयोग्यता, सा च नीलादिषु त्रिकालावस्थायिनीति चेत् ? अस्तु कामम्, किन्त्वेषा यदि प्रतिरूपं व्यावृत्ता, प्रत्ययानुगमो न स्यात्, एकनिमित्ताभावात् । अथानुवृत्ता, संज्ञाभेदमात्रम् । एवं रसादयोऽपि व्याख्याताः। वक्य का अर्थ है कि रूपादि गुणों में से प्रत्येक में रूपत्वादि स्वरूप अपर जातियों के सम्बन्ध से रूप, रस आदि संज्ञायें होती हैं । रूपादि नाम ही रूपादि गुणों के असाधारण धर्म हैं, जिनकी मूल हैं रूपत्वादि जातियाँ। कोई कहते हैं कि (प्र० ) रूपत्व नाम की कोई जाति नहीं है । ( उ०) किन्तु यह कहना ठीक नहीं क्योंकि नीलपीतादि विभिन्न रूपों में यह रूप है' इस एक प्रकार की ( अनुवृत्त ) प्रतीतियाँ होती हैं (प्र.) सभी रूप आँख से देखे जाते हैं, इसीसे मभी रूपों में एक आकार की प्रतीति होती है । ( उ०) नीलपीतादि में 'यह रूप है' इस आकार की प्रतीति आँख से नहीं होती है, अगर चक्षु से गृहीत होने के कारण ही नीलादि में 'यह रूप है' इस प्रकार की प्रतीति हो, तो फिर चक्षु के द्वारा ग्रहण के बाद ही 'यह रूप है' इस प्रकार की प्रतीति होनी चाहिए। (प्र०) चक्षुर्ग्राह्यत्व' (चक्षु से गृहीत होने का ) का अर्थ है चक्षु के द्वारा गृहीत होने की स्वरूपयोग्यता, यह तो नीलादि में तीनों कालों में है ही। ( उ० ) मान लिया कि है, किन्तु यह योग्यता नीलादि प्रत्येक रूप में अगर अलग अलग है तो फिर सभी रूपों में ये रूप हैं' इस एक आकार की प्रीति नहीं होगी, क्योंकि उसका कोई एक कारण नहीं है। अगर चक्षुर्माह्यता सभी रूपों में एक है तो फिर जाति को मान लेने में कोई विवाद ही नहीं रह जाता है। इसी प्रकार से रसादि की भी व्याख्या हो जाती है।
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