________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
२४८
न्यायकन्दलीसंवलिप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणसाधयंवैधयं
न्यायकन्दली वच्छेदेन वृक्षे एव पुरुषस्य भावाभावप्रतीतेः। यदि प्रदेशस्य संयोगो न प्रदेशिनस्तदा प्रदेशस्यापि स्वप्रदेशापेक्षया प्रदेशित्वान्निष्प्रदेशे परमाणुमात्रे संयोगः स्यात् । तवत्तिस्तु संयोगो न प्रत्यक्ष इति संयोगप्रतीत्यभाव एव पर्यवस्यति । यथा च रूपादिभेदेऽप्येकोऽवयवी न भिद्यते तथा संयोगतदवाभ्यामपि, उभयत्रापि तदेकत्वस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वात् । यद्यप्युभयाश्रयः संयोगस्तयोरुपलब्धावुपलभत एव, तथापि तस्य रूपादिवद् गृह्यमाणाखिलावयवावच्छेदेनानुपलम्भादव्यापकत्वम् । एवं शब्दोऽप्याकाशं न व्याप्नोति, तत्रैवास्य देशभेदेनोपलम्भानुपलम्भाभ्यां युगपद्भावाभावसम्भवात् । बुद्धयादयो झन्तर्बहिश्चोपलम्भानुपलम्भाभ्यामव्यापकाः । कथं तहि धर्माधर्माभ्यामग्न्यादिषु किया, तयोस्तद्देशेऽभावादिति चेन्न, तत्रासतोरपि तयोः स्वाश्रयसन्निधिमात्रेण निमित्तत्वान् । यथा वस्त्रस्यकान्ते चाण्डालस्पर्शीsपरान्तसंयुक्तस्य वणिकस्य प्रत्यवायहेतुस्तथेदमपि द्रष्टव्यम् ।
अभाव की भी प्रतीति होती है। अगर प्रदेशों ( अवयवों) मे ही संयोग मानें प्रदेशी ( अवयवी ) में संयोग न मानें तो उन प्रदेशों में भी संयोग मा मानना सम्भव न होगा, क्योंकि वे प्रदेश भी अपने अवयवों की अपेक्षा अवयवी हैं ही, फलत: अवयवों (प्रदेशों) से शून्य परमाणुओं में ही संयोग मानना पड़ेगा। जिससे संयोग का प्रत्यक्ष ही असम्भव हो जायगा, क्योंकि उसका आश्रय परमाणु अतीन्द्रिय है। अतः ( अवयवों में ही संयोग है अवयवियों में नहीं) इस पक्ष में संयोग का प्रत्यक्ष ही न हो पायेगा। जैसे रूप रसादि के परस्पर भिन्न होने पर भी उनके आश्रय रूप अवयवी परस्पर भिन्न नहीं होते, उसी प्रकार संयोग और संयोगाभाव के आश्रय दो वस्तुओं के आधार होने के कारण ही परस्पर भिन्न नहीं हैं, क्योंकि इन दोनों के आश्रयों में एकता की प्रतीति प्रत्यक्ष प्रमाण से होती है। यद्यपि संयोग अपने प्रतियोगी एवं अनुयोगी दोनों में ही आश्रित है, क्योंकि उसके प्रत्यक्ष के लिए दोनों का प्रत्यक्ष आवश्यक है, तथापि जिस प्रकार रूपादि की उपलब्धि प्रत्यक्ष होनेवाले अवयवी के सभी अवयवों में होती है, संयोग की उपलब्धि उस प्रकार से सभी अवयवों में नहीं होती। अतः संयोग 'अव्यापक' अर्थात अव्याप्यवृत्ति है। इसी प्रकार शब्द भी (अपने आश्रय ) आकाश के समूचे प्रदेश में नहीं रहता है, अतः एक ही समय आकाश में प्रदेश भेद से शब्द की सत्ता और असत्ता दोनों की ही सम्भावना है। ज्ञानादि गुणों की प्रतीति अन्तर्मुखो होती है, बहिर्मुखी नहीं होती, अतः वे भी अव्यापक अर्थात् प्रादेशिक हैं। (प्र.) तो फिर धर्म और अधर्म से वह्नि प्रभृति में क्रिया कैसे होती है ? क्योंकि वे तो वहां नहीं है ? (उ) क्रिया के प्रदेश में धर्मादि के न रहने पर भी धर्मादि आत्मा में रहते हैं, आत्मा का क्रिया प्रदेश से सान्निध्य है, इसी परम्परा सम्बन्ध के द्वारा धर्मादि क्रिया के कारण हैं। जिस प्रकार कपड़े के एक छोर में चाण्डाल का स्पर्श उसी कपड़े के दूसरे छोर से संयुक्त त्रैवर्णिकों के प्रत्यवाय का कारण होता है, वैसे ही यहाँ भी समझना चाहिए ।
For Private And Personal