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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
धियंवैधऱ्या
प्रशस्तपादभाष्यम् सङ्घयापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वद वत्वस्नेहवेगा द्वीन्द्रियग्राह्याः ।
बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नास्त्वन्तःकरणग्राह्याः। संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, नैमित्तिक द्रवत्व और वेग ये नौ गुण दो इन्द्रियों से (भी) गृहीत हो सकते हैं।
___ बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न ये छ: गुण 'अन्त:करण' अर्थात् मन से ज्ञात होते हैं।
न्यायकन्दली संख्यादयो वेगान्ता द्वीन्द्रियग्राह्याः चक्षुस्पर्शनग्राह्याः। यथा चक्षषा स्निग्धोऽयम' इति प्रतीतिरेवं त्वगिन्द्रियेणापि भवति, संख्यादिवत् स्नेहोऽपि तदुभयग्राह्यः।
बुद्धयादयः प्रयत्नान्ता अन्तःकरणग्राह्याः, मनसा प्रतीयन्त इत्यर्थः ।
बुद्धिरनुमेया नान्तःकरणेन गृह्यत इति केचित्, तदयुक्तम्, लिङ्गाभावात् । न तावदर्थमात्रं लिङ्गम्, तस्य व्यभिचारात् । ज्ञातोऽर्थों लिङ्ग चेत् ? ज्ञानसम्बन्धो ज्ञातता, याऽसौ ज्ञानकर्मता सा प्रतीयमाने ज्ञाने न प्रतीयते, सम्बन्धिप्रतीत्यधीनत्वात् सम्बन्धप्रतीतेरिति कथं तद्विशेषेणार्थो लिङ्गं स्यात् ?
चक्षुरादि बाह्य इन्द्रियों में से ही किसी एक इन्द्रिय से गृहीत होता है।
संख्या से लेकर वेग पर्यन्त कथित ये दश गुण 'द्वीन्द्रियग्राह्य' हैं, अर्थात् चक्षु और त्वचा दोनों इन्द्रियों से गृहीत होते हैं । 'यह स्निग्ध है' यह प्रतीति जैसे चक्षु से होती है, वैसे ही त्वचा से भी होती है अतः संख्यादि की तरह स्नेह भी 'द्वीन्द्रियग्राह्य' है ।
बुद्धि से लेकर प्रयत्न पर्यन्त कहे हुये ये छः गुण 'अन्तःकरणग्राह्य हैं', अर्थात् इनका प्रत्यक्ष मन रूप अन्तरिन्द्रिय से ही होता है। कोई कहते हैं कि (प्र०) बुद्धि का अनुमान हो होता है, अतः अन्तरिन्द्रिय से भी उसका प्रत्यक्ष नहीं होता। ( उ०) किन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि बुद्धि की अनुमिति का कोई उपयुक्त हेतु नहीं है। केवल (ज्ञेय) अर्थ के ज्ञान अनुमिति के हेतु नहीं हो सकते, क्योंकि यह व्यभिचरित है। ज्ञात अर्थ के ज्ञानों को अनुमिति का हेतु माने (तो भी नहीं हो सकता, क्योंकि ) अर्थ में ज्ञान का सम्बन्ध ही उसकी 'ज्ञातता' है। अर्थ में ज्ञान का सम्बन्ध (ज्ञानक्रिया का) कर्मत्व रूप ही है । अतः ज्ञान के प्रतीत हुये बिना ज्ञानकर्मत्व रूप ज्ञातता की प्रतीति नहीं हो सकती, किन्तु अनुमिति में लिङ्ग की तरह उसका विशेषण
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