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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम् ।
न्यायकन्दली अथोच्यते-विषयेन्द्रियादिजन्यं विज्ञानं कथमात्मन्येव समवैति ? यद्यात्मा सहजज्ञानमयो न स्यात् । तस्याचेतनत्वे हि कारणत्वातिशेषादिन्द्रियादिष्वपि ज्ञानसमवायो भवेदिति । तत्र स्वभावनियमादेव नियमोपपत्तेः । यथा तन्तूनामपटत्वेऽपि तन्तुत्वजातिनियमात्तेषु समवायो न तुर्यादिषु, तद्वचिदात्मकेऽप्यात्मन्यात्मत्वजातिनियमाद् ज्ञानसमवायस्य नियमो भविष्यति ।
एतेनैतदपि प्रत्युक्तं यदाहुरेके 'स्वसंवेदनमात्मनो निजं चैतन्यम्' इति, संसारावस्थायामपि तस्यावभासप्रसङ्गात् । अविद्यया वा तस्य तिरोधानमिति चेत् ? किं ब्रह्मणोऽप्यविद्या ? कथं च नित्ये स्वप्रकाशे तिरोधानवाचोयुक्तिः ? न च तिरोहिते तस्मिन्नन्यप्रतिभानमस्ति, तस्य भासा
एवं विषयसंवेदन का कारण हो, क्योंकि उसी विषयसंवेदन से अर्थविषयक बोध एवं तज्जनित व्यवहार दोनों की उपपत्ति हो जायगी।
अगर यह कहें कि ( प्र०) विषय एवं इन्द्रियादि से उत्पन्न ज्ञान तब तक आत्मा में समवाय सम्बन्ध से कैसे रह सकता है जब तक कि आत्मा को सहजज्ञानमय न माना जाय । आत्मा अगर स्वतः अचेतन हो किन्तु ज्ञान का कारण होने से ही ( उसमें) ज्ञान की सत्ता हो तो फिर इन्द्रियादि ( रूप ज्ञान के और कारणों ) में भी ज्ञान का समवाय मानना पड़ेगा। ( उ० ) उक्त कथन भी असङ्गत ही है, क्योंकि स्वाभाविक नियम के अनुसार ही इस विषय का अवधारण हो जायगा कि ज्ञान अपने आत्मा रूप कारण में ही समवाय सम्बन्ध से है, इन्द्रियादि रूप कारणों में नहीं। जैसे कि तन्तु में पटरूपता न रहने पर भी (पट के कारणीभूत ) तन्तु में ही समवाय सम्बन्ध से पट रहता है, तुरी, वेमा प्रभृति ३.पने अन्य कारणों में नहीं। इस नियम को मान लेने से ही आत्मा में हा ज्ञान का समवाय है, इस नियम की भी उपपत्ति हो जायगी।
___ इसी से किसी का यह मत भी खण्डित हो जाता है कि (प्र. ) स्वसंवेदन (स्वतःप्रकाश ) ज्ञान आत्मा का स्वकीयचैतन्य ही है ( वह किसी कारण से उसमें उत्पन्न नहीं होता है ) । ( उ०) क्योंकि (वह ज्ञान अगर स्वतःप्रकाश और नित्य है तो फिर ) संसारावस्था में भी उसका प्रत्यक्ष होना चाहिये। अगर यह कहें कि (प्र.) संसारावस्था में वह अविद्या से ढंका रहता है, (उ.) तो फिर इस विषय में यह पूछना है कि क्या ब्रह्म में भी अविद्या रहती है ? एवं नित्य एवं स्वप्रकाश रूप ज्ञान के तिरोधान में ही क्या युक्ति है ? एवं उसके तिरोहित हो जाने पर ( संसारावस्था में) और विषयों का ज्ञान भी असम्भव होगा, क्योंकि 'तस्य भासा सर्वमिदं विभाति' इत्यादि श्रुतियों में कहाँ
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