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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणसाधयंवैधयं
प्रशस्तपादभाष्यम गुरुत्वधर्माधर्मभावना यतीन्द्रियाः ।
अपाकजरूपरसगन्धस्पर्शपरिमाणैकत्वैकपृथक्त्वगुरुत्वद्रवत्वस्नेहवेगाः कारणगुणपूर्वकाः।
गुरुत्व, धर्म, अधर्म और भावना ये चार गुण किसी भी इन्द्रिय से गृहीत नहीं होते ( अर्थात् अतीन्द्रि य हैं )।
अपाकज रूप, अपाकज रस, अपाकज गन्ध, अपाकज स्पर्श, परिमाण, एकत्व, एकपृथक्त्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह और वेग ये ग्यारह गुण 'कारणगुणपूर्वक' हैं, अर्थात् अपने आश्रयीभूत द्रव्य के अवयवों में रहनेवाले अपनेअपने समानजातीय गुण से उत्पन्न होते हैं।
न्यायकन्दली सर्वमिदं विभाति' इति श्रुतेः । भासते चेत् ? सर्वमुक्तिः, विद्याविर्भावे सत्यविद्याविलयात् । अथेयं न विलीयते ? न तर्हि विद्याप्रकाशस्तस्याविलयहेतुरित्यनिर्मोक्षः । निर्भागस्यैकदेशेन प्रतिभानमनाशङ्कनीयम् ।
गुरुत्वधर्माधर्मभावना अतीन्द्रियाः, न केनचिदिन्द्रियेण गृह्यन्त इत्यर्थः।
अपाकजरूपादयो वेगान्ताः कारणगुणपूर्वकाः स्वाश्रयस्य यत्समवायिकारणं तस्य ये गुणास्तत्पूर्वका रूपादयः, तन्तुरूपादिपूर्वकाः पटरूपादयः, गया है कि उसीके प्रकाश से और सभी प्रकाशित होते हैं। अगर संसारावस्था में भी आत्मा का वह सहज चैतन्य प्रकाशित होता है तो फिर सभी जीवों को मुक्ति मिल जायगी, क्योंकि विद्या रूप तत्त्वज्ञान से अविद्या का विनाश हो जाता है। अगर विद्या के प्रकाशित होने पर भी अविद्या का विनाश नहीं होता है तो फिर विद्या ( तत्त्वज्ञान) अविद्या के विनाश का कारण ही नहीं है। तब फिर किसी को भी मोक्ष का मिलना असम्भव हो जायगा । अंशों से शून्य किसी अखण्ड वस्तु के किसी अंश के प्रकाशित होने एवं किसी अंश के अप्रकाशित होने की तो शङ्का ही नहीं करनी चाहिए ।
गुरुत्व, धर्म, अधर्म और भावना ये चार गुण 'अतीन्द्रिय' हैं, अर्थात् किसी भी इन्द्रिय से इनका ग्रहण नहीं होता।
अपाकज रूप से लेकर वेग पर्यन्त कथित ग्यारह गुण 'कारण गुणपूर्वक' हैं । अर्थात् उक्त रूपादि गुण अपने आश्रय ( द्रव्य ) के समवायिकारण ( अवयव ) में रहनेवाले गुणों से उत्पन्न होते हैं। पट प्रभृति द्रव्यों में रहनेवाले रूपादि की उत्पत्ति तन्तु आदि में रहनेवाले रूपादि गुणों से ही होती है। क्योंकि जिस तरह के रूपादि तन्तुओं में देखे जाते हैं, उसी प्रकार के रूपादि पट में भी देखे जाते हैं। अगर ऐसी बात न हो तो फिर
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