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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
२३६
प्रशस्तपादभाष्यम् संयोगविभागवेगाः कर्मजाः । शब्दोत्तरविभागौ विभागजौ।
परत्वापरत्वद्वित्वपृथक्त्वादयो बुद्धयपेक्षाः । संयोग, विभाग और बेग ये तीन गुण क्रिया से उत्पन्न होते हैं ।
शब्द और उत्तर ( विभागज) विभाग ये दोनों विभाग से उत्पन्न होते हैं। परत्व, अपरत्व, द्वित्व, द्विपृथक्त्व प्रभृति बुद्धिसापेक्ष हैं।
न्यायकन्दली उत्तरसंयोगः संयोगजः संयोगोऽभिमतः । नैमित्तिकद्रवत्वं वह्निसंयोगजम् । परत्वापरत्वे दिक्कालपिण्डसंयोगजे । पार्थिवपरमाणुरूपरसगन्धस्पर्शा वह्निसंयोगजा इति विवेकः।
संयोगविभागवेगाः कर्मजाः। आधौ संयोगविभागौ कर्मजौ।
शब्दोत्तरविभागौ विभागजौ । आद्यः शब्दो विभागादपि जायते, उत्तरो विभागो विभागादेव जायत इति विवेकः ।।
परत्वापरत्वद्वित्वद्विपृथक्त्वादयो बुद्ध्यपेक्षाः । एषामुत्पत्तौ निमित्तकारणं बुद्धिः। आदिशब्दात् त्रित्वत्रिपृथक्त्वादिपरिग्रहः । संयोग ही यहाँ 'उत्तरसंयोग' शब्द से इष्ट है। वह्नि के संयोग से नैमित्तिक द्रवत्व की उत्पत्ति होती है। द्रव्यों के साथ दिशा एवं काल के संयोग से परत्व एवं अपरत्व की उत्पत्ति होती है। पार्थिव परमाणुओं के रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये सभी (विशेष प्रकार के ) वह्निसंयोग रूप पाक से उत्पन्न होते हैं ( अतः संयोगज होते हुए भी अपाकज नहीं हैं)।
___ संयोग, विभाग और वेग ये तीनों क्रिया से उत्पन्न होते हैं । पहिला संयोग और पहिला विभाग ये दोनों ही क्रिया से उत्पन्न होते हैं (द्वितीय संयोग की उत्पत्ति संयोग से एवं द्वितीय विभाग की उत्पत्ति विभाग से ही होती है)।
___ शब्द और उत्तरविभाग दोनों ही विभाग से उत्पन्न होते हैं। यह ध्यान रखना चाहिए कि ( इनमें ) प्रथम शब्द विभाग से भी उत्पन्न होता है, किन्तु उत्तर विभाग केवल विभाग से ही उत्पन्न होता है ।
परत्व, अपरत्व, द्वित्व, द्विपृथक्त्वादि 'बुद्धिसापेक्ष' हैं, अर्थात् इन सबों की उत्पत्ति में बुद्धि निमित्तकारण है। आदि पद से त्रित्व एवं त्रिपृथकत्व प्रभृति को समझना चाहिए।
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