________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
२२४
www.kobatirth.org
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
युक्त्यन्तरं वाच्यम् तदुच्यते विभुत्वादात्ममनसोः परस्परसंयोगाभावे सत्यात्मगुणानां ज्ञानसुखादीनामनुत्पत्तिरसमवायिकारणाभावात् । आत्मार्थसंयोगस्य ह्यसमवायिकारणत्वेऽर्थदेशे ज्ञानोत्पत्तिः स्यादसमवायिकारणाव्यवधानेन प्रदेशवृत्तीनां गुणानामुत्पादात् । आत्मेन्द्रियसंयोगस्यासमवायिकारणत्वे शब्दज्ञानानुत्पत्तिः, आकाशात्मकेन श्रोत्रेणात्मनः संयोगाभावात् । न च बहिर्देशे प्रत्ययो नापि शब्दज्ञानानुत्पाद:, तस्मादात्मार्थसंयोगस्यात्मेन्द्रियसंयोगस्य चासमवायिकारणत्वं प्रतिषिद्धे परिशेषादात्ममनः संयोगस्यासमवायिकारणत्वं व्यवतिष्ठते, तच्च मनसो व्यापकत्वे न सम्भवतीत्यनुत्पत्तिरेव ज्ञानमुखादीनाम् अस्ति च तेषामुत्पाद: स एव मनसो विभुत्वं निवर्त्तयतीति । अपसर्पणोपसर्पणवचनात् संयोगविभागावति । “अपसर्पणमुपसर्पणमशितपीतसंयोगवत् कायान्तरसंयोगश्चादृष्ट
[ द्रव्ये मन:
,
For Private And Personal
का कारण मन को विभु मान लेने पर भी हो सकता है, इसके लिए मन को अणु मानना व्यर्थ ही होगा, अतः 'मन विभु नहीं है' इसके लिए दूसरी युक्ति कहनी चाहिए । ( उ० ) कहते हैं, आत्मा और मन ये दोनों हो अगर विभुहों तो फिर इन दोनों का संयोग हो नहीं होगा और उन दोनो के संयोग न होने पर आत्मा के विशेषगुण ज्ञानसुखादि की उत्पत्ति ही नहीं होगी क्योंकि उसका कोई असमवायिकारण नहीं होगा । आत्मा और विषय इन दोनों के संयोग को अगर ज्ञानसुखादि का असमवायिकारण मानें तो फिर उस विषय के देश में ही ज्ञानादि की उत्पत्ति माननी पड़ेगी क्योंकि प्रादेशिक ( अव्याप्यवृत्ति) गुणों का यह स्वभाव है कि वे असमवायिकारण के अव्यवहित प्रदेश में ही उत्पन्न हों । आत्मा एवं (श्रोत्रादि) इन्द्रियों के संयोग को ही अगर आत्मा के उन ज्ञानादि गुणों का असमवायिकारण मानें तो शब्दज्ञान की ही अनुत्पत्ति माननी पड़ेगी, क्योंकि आकाशात्मक ( विभु ) श्रोत्र के साथ ( विभु) आत्मा का संयोग ही असम्भव हैं, तस्मात् भूतलादि प्रदेशों में ज्ञानादि गुणों की उत्पत्ति नहीं होती हैं, एवं शब्दादि गुणों की उत्पत्ति होती हैं । इन ( अनुत्पत्ति और उत्पति ) दोनों से यह सिद्ध होता है कि आत्मा के साथ विषयों के संयोग एवं इन्द्रियों के साथ आत्मा का संयोग ये दोनों आत्मा के विशेष गुणों के असमवायिकारण नहीं हैं, अतः आत्मा और मन का संयोग हो उनका असमवायिकारण है । यह ( असमवायिकारण ) संयोग मन को विभु मानने पर असम्भव होगा, फलतः ज्ञान की उत्पत्ति अनुपपन्न हो जायगी, किन्तु ज्ञान की उत्पत्ति होती है, अतः ज्ञानसुखादि की उत्पत्ति से ही मन से विभुत्व हट जाता है ।
"अपसर्पण और उपसर्पण के कहने से मन में संयोग और विभाग भी हैं" अर्थात् सूत्रकार ने लिखा है कि "अर्पणमुपसर्पण मशितपीत संयोगवत् कायान्तरसंयोगश्चाष्टकारितानि” । अभिप्राय यह है कि मन का एक शरीर से 'अपसर्पण' अर्थात् हटना एवं ' उपसर्पण' अर्थात् दूसरे शरीर