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प्रकरणम् भाषानुवादसहितम्
१५५ प्रशस्तपादभाष्यम् कालः
परापरव्यतिकरयोगपचायोगपद्यचिरक्षिप्रप्रत्ययलिङ्गम् । तेषां विषयेषु पूर्वप्रत्ययविलक्षणानामुत्पत्तावन्यनिमित्ता
( एक ही वस्तु में ) परत्व और अपरत्व का वैपरीत्य, एककालिकत्व, एवं विभिन्नकालिकत्व, विलम्ब एवं शीघ्रता इन सबों की प्रतीति रूप हेतुओं से काल का अनुमान होता है। इनमें से प्रत्येक प्रतीति शेष प्रतीतियों से विलक्षण है।
न्यायकन्दली शब्दश्चाकाशगुण इति निर्णीतम, तेनाकाशमेव तावच्छोत्रं, तच्च व्यापकमपि न सर्वत्र शब्दमुपलम्भयति प्राणिनामदृष्टवशेन कर्णशष्कुल्यधिष्ठाननियतस्यैव तस्येन्द्रियत्वात्, यथा सर्वगतत्वेऽप्यात्मनो देहप्रदेशे ज्ञातृत्वं नान्यत्र, शरीरस्योपभोगार्थत्वात्, अन्यथा तस्य वैयर्थ्यात् । नन्वेवमपि बधिरस्य शब्दोपलब्धिः स्यात् कर्णशष्कुलीसद्भावादत्राह-तस्य चेति। तस्याकाशस्य नित्यत्वेऽप्युपनिबन्धकयोधर्माधर्मयोः सहकारिभूतयोर्वकल्यादभावाद् बाधिर्यम् । इतिशब्दः समाप्तौ।
कालस्य निरूपणार्थमाह-काल इति। दिगविशेषापेक्षया यः परस्तस्मिन्नपर इति प्रत्ययः, यश्चापरस्तस्मिन् पर इति प्रत्ययः परापरयोर्व्यतिकरो व्यत्ययः। तथा च युगपत्प्रत्ययोऽयुगपत्प्रत्ययश्च, क्षिप्रप्रत्ययश्चिरप्रत्ययश्च काल
भी शब्द रूप विशेष गण है। यह निर्णय कर चुके हैं कि शब्द आकाश का गुण है, अतः श्रोत्रेन्द्रिय आकाश रूप ही है। व्यापक होने पर भी उससे सर्वत्र सभी शब्दों का प्रत्यक्ष नहीं होता है, क्योंकि प्राणियों के धर्म और अधर्म से कर्णशष्कुल्यवच्छिन्न आकाश में ही इन्द्रियत्व है। जैसे कि आत्मा में सभी मूर्त द्रव्यों के साथ समान रूप से संयोग रहनेपर भी देहप्रदेशविशिष्ट आत्मा में ही ज्ञान का कत्तुं त्व है और प्रदेशों के साथ संयुक्त आत्मा में नहीं, क्योंकि शरीररूप द्रव्य ही भोग का आयतन है। अन्यथा उसकी और कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। (प्र०) इस प्रकार
बहरे आदमियों को भी शब्द का प्रत्यक्ष होना चाहिए? इस प्रश्न का समाधान 'तस्य च' इत्यादि से देते हैं । 'तस्य' अर्थात् आकाश रूप होने के कारण श्रोत्र के नित्य होनेपर भी उसके सहायक धर्म और अधर्म से ही आदमी बहरे होते हैं। यहां 'इति' शब्द समाप्ति का सूचक है ।
काल का निरूपण करने के लिए 'काल' इत्यादि पङ्क्ति लिखते हैं। जैसे कि एक स्थान किसी दिशा की अपेक्षा दूर है, उसीमें फिर दूसरी दिशा विशेष की अपेक्षा सामीप्य की भी प्रतीति होती है। एवं कोई स्थान किसी विशेष दिशा से समीप है, उसीमें किसी विशेश दिशा से दूरत्व की भी प्रतीति होती है। यही पर और अपरत्व का 'व्यतिकर' अर्थात् व्यत्यय है। एककालिकत्व और विभिन्नकालिकत्व
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