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সকম্ব ] भाषानुवादसहितम्
२०७ न्यायकन्द्रलो स्वरूपप्रच्युतेरभावात् । नित्यस्य हि स्वरूपविनाशः स्वरूपान्तरोत्पादश्च विकारो नेष्यते, गुणनिवृत्तिर्गुणान्तरोत्पादश्चाविरुद्ध एव। अथास्य नित्यस्य सुखदुःखाभ्यां कि क्रियते ? स्वविषयोऽनुभवः । सुखदुःखानुभवे सत्यास्यातिशयानतिशयरहितस्य क उपकार:? अयमेव तस्योपकारोऽयमेव चातिशयो यस्मिन् सति सुखदुःखभोक्तृत्वम् । तथाहंशब्देनापीति । यथा सुखादिभिरात्मा अनुमीयते तथाहंशब्देना. प्यनुमीयते, अहंशब्दो लोके वेदे चाभियुक्तैः प्रयुज्यमानो न तावनिरभिधेयः। न च स्वरूपमभिधेयं युक्तं स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । यथोक्तम्'नात्मानमभिधत्ते हि कश्चिच्छब्दः कदाचन।" तस्माद् योऽस्याभिधेयः स आत्मेति। नन्वयं पृथिव्यादीनामेव वाचको भविष्यति तत्राह-पृथिव्यादिशब्दव्यतिरेकादिति । यो यस्यार्थस्य वाचकः स तच्छब्देन समानाधिकरणो दृष्टः, यथा द्रव्यं पृथिवीति । अहंशब्दस्य तु पृथिव्यादिवाचकैः शब्दैः सह व्यति.
हो सकता है। एक स्वरूपविनाश और दूसरे स्वरूप की उत्पत्ति ये दोनों विकार तो नित्य वस्तुओं में होते नहीं हैं। एक गुण का नाश और दूसरे गुण की उत्पत्ति ये दोनों विकार उसके नित्यत्व के विरोधी नहीं हैं । (प्र०) नित्य आत्मा को सुख और दुःख से क्या होता है ? (उ०) सुख दुःखादि का अनुभव होता है । (प्र०)अतिशय (वैशिष्टय) और अनतिशय से रहित आत्मा का सुख और दुःख के अनुभव से क्या उपकार होता है ? ( उ०) इनसे यही उपकार होता है और इनसे आत्मा में यही अतिशय उत्पन्न होता है कि इन दोनों के रहने से ही सुख दुःख के भोक्तृत्व का व्यवहार उस में होता है। "तथाऽहंशब्देनापि" जैसे कि सुखादि से आत्मा का अनुमान होता है वैसे ही 'अहम्' शब्द से भी आत्मा का अनुमान होता है। लोक में और वेदों में प्रयुक्त 'अहम्' शब्द अपने वाच्य अर्थ से रहित नहीं हैं और अपना स्वरूप (आनुपूर्वी) भी उसके वाच्य अर्थ नहीं है, क्योंकि एक ही वस्तु में एक क्रिया का कतत्व और कर्मत्व दोनों नहीं रह सकते, क्योंकि वे दोनों परस्पर विरोधी है । जैसा कहा है कि 'कोई भी शब्द अपने स्वरूप (आनुपूर्वी) को कभी भी अभिधावृत्ति से नहीं समझाते, अतः आत्मा ही 'अहम्' शब्द का वाच्य अर्थ है । 'अहम्' शब्द पृथिव्यादि का वाचक हो सकता है ? इस आक्षेप के समाधान में 'पृथिव्यादिशब्दव्यतिरेकात्' यह वाक्य कहा है। जो शब्द जिस अर्थ का वाचक रहता है वह उस अर्थ के वाचक दूसरे शब्द के साथ 'समानाधिकरण' अर्थात् अभेद का बोध करनेवाले रूप से प्रयुक्त होता है, जैसे कि 'द्रव्यं पृथिवी' इत्यादि । 'अहम्' शब्द का पृथिव्यादि वाचक शब्दों के साथ व्यतिरेक' अर्थात् सामानाधिकरण्य नहीं है, क्योंकि 'अहं पृथिवी, अहमुदकम्' इत्यादि प्रतीतियाँ नहीं होती हैं । अत: 'अहम्' शब्द पृथिव्यादि का वाचक नहीं है।
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