________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
२१६
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये मन:
प्रशस्तपादभाष्यम् मनस्त्वयोगान्मनः । सत्यप्यात्मेन्द्रियार्थसान्निध्ये ज्ञानसुखादीनामभूत्वोत्पत्तिदर्शनात् करणान्तरमनुमीयते । श्रोत्राद्यव्यापारे स्मृत्युत्पत्ति___मनस्त्वजाति के सम्बन्ध से मन का व्यवहार होता है। आत्मा और इन्द्रिय का संयोग, विषय और इन्द्रिय का संयोग इन दोनों के रहने पर भी किसी को ज्ञान सुखादि की उत्पत्ति कभी होती है, कभी नहीं। अतः आत्मा, इन्द्रिय और विषय इन सबों से भिन्न (ज्ञानादि के) कारण का अनुमान करते हैं, श्रोत्रादि इन्द्रियों के व्यापार के न रहने पर भी स्मृति की उत्पत्ति होती है। एवं बाह्य इन्द्रियों से
न्यायकन्दली प्रधानत्वात् प्रथममात्मनमाख्याय तदनन्तरं मनोनिरूपणार्थमाहमनस्त्वयोगान्मन इति । व्याख्यानं पूर्ववत् । मनस्त्वं नाम सामान्यं मनोव्यक्तीनां भेदे स्थिते सत्यनुमेयम् । या हि समानगुणकार्या व्यक्तयस्तासु परं सामान्यं दृष्ट यथा घटादिषु, समानगुणकार्याश्च मनोव्यक्तयस्तस्मात्तासु सद्भावे सामान्ययोगः । असिद्धे मनसि तस्य धर्मनिरूपणमन्याय्यमिति मत्वा तस्य सद्भावे प्रमाणमाह-सत्यप्यात्मेन्द्रियार्थसान्निध्ये इति । आत्मनस्तावत् सर्वेन्द्रियैर्युगपत्सम्बन्धोऽस्त्येव, इन्द्रियाणामपि सन्निहितैरर्थः सन्निकर्षो भवति, तथाप्येकस्मिन् निवृत्त हो जायगा। राग और द्व प से शून्य पुरुष को न किसी विषय में प्रवृत्ति होगी न किसी से निवृत्ति । प्रवृत्ति और निवृत्ति के न रहने से धर्म और अधर्म की धारा रुक जायगी। इससे जन्म की धारा रुक जाएगी इस प्रकार इस ( नैरात्म्य ) पक्ष में अपवर्ग की उपपति हो सकती है। (उ०) नित्य आत्मा के ज्ञान से युक्त पुरुष को भी विषयों में दोष दीख पड़ते हैं, इस दोष दर्शन से वैराग्य की उत्पत्ति होती है, फिर मोक्ष की उत्पत्ति असम्भव नहीं है । अब इस विषय में इतना ही बहुत है।
आत्मा और मन इन दोनों में आत्मा ही प्रधान है, अतः आत्मा का निरूपण करके बाद में 'मनस्त्वयोगात्' इत्यादि से मन का निरूपण करते हैं। इस पक्ति की व्याख्या 'आत्मत्वाभिसम्बन्धात्' इत्यादि पङ्क्तियों की तरह समझनी चाहिये । भिन्न-भिन्न मनोव्यक्तियों की सिद्धि हो जाने पर 'मनत्व' जाति का अनुमान करना चाहिए । जिनसे समान रूप के (जितने भी) कार्य होते हैं एवं समान गुणवाले जिनने भी व्यक्ति हैं, उन सबों में एक प रसामान्य देखा जाता है, जैसे कि घटादि में। मनोव्यक्तियों से भी समान कार्य होते हैं, एवं मनोव्यक्तियां भी समान गुणवाली हैं, अतः उनमें भी एकः परसोमोन्य अवश्य ही है। 'मन की सिद्धि के बिना उसके गुणों का निरूपण सङ्गत नहीं है' यह मान कर ही 'सत्यपीन्द्रियार्थर्सनिकर्षे' इत्यादि से मन की सत्ता में प्रमाण देते हैं । आत्मा का सभी इन्द्रियों के साथ एक ही काल में
For Private And Personal