________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
२१५
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् सन्निकर्षजत्वात् सुखादीनां संयोगः । तद्विनाशकत्वाद्विभाग इति । संयोग से उत्पन्न होते हैं, अत: आत्मा में संयोग भा है। यतः विभाग संयोग का नाशक है, अतः आत्मा में विभाग भी है।
न्यायकन्दली गुणादेवोत्पादो न्याय्यः । ऊर्ध्वज्वलनतिर्यकपवनान्यात्मविशेषगुणकृतानि गुरुत्वादिकारणाभावे सति कर्मत्वात् पुरुषप्रयत्नजपाणिकर्मवत् ।
___ सन्निकर्षजत्वात्सुखादीनां संयोगः । सुखादीनामात्मगुणानां मनःसंयोगजत्वादात्मनि संयोगः सिद्धः, व्यधिकरणस्यासमवायिकारणत्वाभावात् ।तद्विनाशकत्वाद् विभाग इति । तस्य संयोगस्य विनाशकत्वाद् विभागः सिद्धः, आत्ममनसोनित्यत्वेनाश्रयविनाशस्य विनाशहेतोरभावादित्यर्थः । नन्वात्मनि नित्ये स्थिते नित्यात्मशिनः सुखतृष्णापरिप्लुतस्य सुखसाधनेषु रागो दुःखसाधनेषु द्वेषस्ताभ्यां प्रवृत्तनिवृत्ती, ततो धर्माधम्मो, ततः संसार इत्यदिर्मोक्षः । नैरात्म्ये त्वहमेव नास्मि कस्य दुःखमित्यनास्थायां सर्वत्र रागद्वेषरहितस्य प्रवृत्त्यादेरभावे सत्यपवर्गो घटत इति चेन्न, नित्यात्मशिनोऽपि विषयदोषदर्शनाद् वैराग्योत्पत्तिद्वारेण तस्योत्पत्तिरित्यलम् । विलक्षण प्रकार की होती हैं, अत: यही न्याय सङ्गत है कि ऊर्वज्वलनादि क्रियाओं का कारण भी आत्मा का विशेषगुण ही हो। जिस प्रकार हाथ की क्रिया पुरुष में रहने वाले प्रयत्न रूप विशेष गुण से उत्पन्न होती है, उसी प्रकार वह्नि को ऊध्वंज्वलन रूप क्रिया एवं वायु की कुटिल गति रूपा किया ये दोनों ही आत्मा के विशेष गुण से उत्पन्न होती हैं, क्योंकि गुरुत्वादि उनके कारण वहाँ नहीं हैं जैसे कि पुरुष के प्रयत्न से उत्पन्न हाथ की क्रिया ।
'यतः सुखादि संयोग से उत्पन्न होते हैं, अतः संयोग भी आत्मा का गुण है'.क्यों कि 'व्यधिकरण' अर्थात् विभिन्न अधिकरणों में रहने वाले कारणों से उस अधिकरण में कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है। विभाग चूंकि संयोग का नाशक है, अतः वह भी आत्मा का गुण है' अर्थात् विभाग संयोग का नाशक है इससे आत्मा में विभाग नाम के गुण की भी सिद्धि समझनी चाहिए । अभिप्राय यह है कि आत्मा और मन दोनों ही नित्य हैं, अतः सुखादि के कारणीभूत संयोग का नाश आश्रयों के नाश से नहीं हो सकता, फलतः उक्त संयोग का नाश विभाग से ही मानना पड़ेगा।
(प्र०) नित्य आत्मा के सिद्ध हो जाने पर नित्य आत्मा के ज्ञान से युक्त एवं सुख की तृष्णा ( एवं दुःख की वितृष्णा से ) ओतप्रोत जीव का सुख के साधनों में राग और दुःख के साधनों में द्वेष, राग से प्रवृत्ति एवं द्वष से निवृत्ति, एवं प्रवृत्ति से धर्म और निवृत्ति से अधर्म और धर्माधर्म से संसार इस प्रकार मोक्ष की ही अनुपपत्ति होगी। अगर 'नरात्म्य' अर्थात् आत्मा का विनाश मान लिया जाय 'जब हम ही नहीं तो फिर दुःख किसको ? इस प्रकार की अवज्ञा से पुरुष स्वभावतः राग और द्वेष से
For Private And Personal