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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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[ द्रव्ये मनः
दर्शनाद्
बाह्येन्द्रियैरगृहीतसुखादिग्राह्मान्तरभावाच्चान्तःकरणम् ।
गृहीत न होने वाले एवं दूसरे प्रकार से प्रत्यक्ष होने वाले सुखादि की भी सत्ता है । इन दोनों से भी 'अन्तःकरण' ( मन ) का अनुमान होता है ।
न्यायकन्दली
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च न
परस्पर
रगृहीतानां सुखादीनां रूपाद्यपेक्षया ग्राह्यान्तराणां भावाच्च तदनुमानमित्याह - बाह्येन्द्रियैरिति । सुखादिप्रतीतिरिन्द्रियजा, अपरोक्षप्रतीतित्वाद् रूपादिप्रतीतिवत् यच्च तदिन्द्रियं तन्मनः, चक्षुरादीनां तत्र व्यापाराभावात् । अभिन्नकरणत्वाज्ज्ञानात्मकाः सुखदायः सुखसंवेदनानि (च) न कारणान्तरेण गृह्यन्ते इति चेन्न, ज्ञानस्वभावत्वे सुखदुःखयोरविशेषप्रसङ्गात् । परस्परभेदे तयोर्ज्ञानात्मकता, बोधाकारस्योभयसाधारणत्वेऽपि सुखदुःखाकारयोः व्यावृत्तत्वात् । न चानयविज्ञानाभिन्नहेतुत्वम्, ज्ञानस्यार्थाकारादुत्पत्तेः, तस्माच्च वासना साहयात् सुखदुःखयोरुत्पादात्, अन्यथोपेक्षाज्ञानाभावप्रसङ्गात् । न च स्वसंवेदनं विज्ञानमित्यपि सिद्धम् एकस्य कर्म्मकरणादिभावे दृष्टान्ताभावात्, मान नहीं होता है. किन्तु 'बाह्य इन्द्रियों से' अर्थात् चक्षुरादि इन्द्रियों से जिन सुखादि विषयों का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है, वे रूपादि से विलक्षण अर्थ, अथ च प्रत्यक्ष योग्य सुखादि से भी मन का अनुमान होता है ! यही बात 'बाह्येन्द्रियैः' इत्यादि से कहते हैं । सुख की प्रतीति भी इन्द्रिय से होती है, क्योंकि वह भी अपरोक्ष प्रतीति है, जैसे कि रूपादि की प्रतीति । सुखादि का प्रत्यक्ष करानेवाली इन्द्रिय हो 'मन' है, क्योंकि ( वहाँ ) चक्षुरादि अन्य इन्द्रियों का व्यापार असम्भव है । ( प्र० ) ज्ञान एवं सुखादि वस्तुतः अभिन्न हैं, क्योंकि एक ही सामग्री से इन सबों की उत्पत्ति होती है, अतः सुख एवं उसके ज्ञान के लिए ज्ञान उत्पादकों को छोड़ कर और किसी को अपेक्षा सुख और नहीं है । ( उ० ) सुखादि अगर ज्ञान स्वभाव के होते तो में कोई अन्तर दुःख न रहता । सुख और दुःख परस्पर भिन्न हैं तो फिर दोनों ज्ञान स्वभाववाले नहीं हो सकते । सुखादि में ज्ञानाकारतारूप एक धर्मं मान लेने पर भी उनमें से प्रत्येक में रहनेवाले सुखाकारत्व एवं दुःखाकारत्व रूप विभिन्न धर्म तो परस्पर भिन्न हैं ही। ( बौद्ध मत में भी ) केवल ज्ञान के कारण विज्ञान से सुख और दुःख की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि विषयाकार विज्ञान से ज्ञान की ही उत्पत्ति होती है । विषयाकार विज्ञान को ही जब वासना का साहाय्य मिलता है तो उससे सुख दुःख की उत्पत्ति (बौद्ध मत से ) होती है, अगर ज्ञान के उत्पादक विषयाकार विज्ञान से ही सुख और दुःख की भी उत्पत्ति मानें तो संसार से उपेक्षात्मक ज्ञान की सत्ता उठ जायगी, (क्योंकि सुख और दुःख से भिन्न ज्ञान ही बौद्ध मत में उपेक्षा ज्ञान है । ) विज्ञान 'स्वसंवेदन' अर्थात् स्वप्रकाश ही है' इसमें भी कोई प्रमाण नहीं है, क्योंकि इसमें कोई दृष्टान्त नहीं है कि एक ही वस्तु एक ही क्रिया का एक ही समय