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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
२१७ न्यायकन्दली विषये प्रतीयमाने विषयान्तरे ज्ञानसुखादयो न भवन्ति, तदुपरमाच्च भवन्तीति दृश्यते, तदर्शनादात्मेन्द्रियार्थसन्निकर्षेभ्यः करणान्तरमनुमीयते यस्य सन्निधानाज्ज्ञानसुखादीनामुत्पत्तिः, असन्निधानाच्चानुत्पत्तिः । आत्मेन्द्रियार्थसन्निकर्षा: कार्योत्पत्तौ करणान्तरसापेक्षाः, सत्यपि सद्भावे कार्यानुत्पादकत्वात् तन्त्वादिवत, यच्च तदपेक्षणीयं तन्मनः । एकार्थोपलब्धिकालेऽनुपलभ्यमानस्याप्यर्थान्तरस्येन्द्रियसन्निकर्षोऽस्तीति कि प्रमाणम् ? इन्द्रियाधिष्ठानसन्निधिरेव । रूपोपलब्धिकाले गन्धादयोऽपि घ्राणादिभिः सन्निकृष्यन्ते, तदधिष्ठानसन्निहितत्वादुपलभ्यमानगन्धादिवत् । प्रमाणान्तरमप्याह-श्रोत्राद्यव्यापारे स्मृत्युत्पत्तिदर्शनादिति। स्मृतिस्तावदिन्द्रियजा ज्ञानत्वाद् गन्धादिज्ञानवत् , न चास्याः श्रोत्रादीनि करणानि, बधिरादीनां श्रोत्रादिव्यापाराभावे तस्या उत्पत्तिदर्शनात् । तस्माद्यदस्याः करणमिन्द्रियं तन्मनः, न केवलं पूर्वस्मात्कारणात् करणान्तरानुमानं बाह्येन्द्रियैश्चक्षुरादिभिसम्बन्ध है ही, ( क्योंकि आत्मा विभु है ) इन्द्रियाँ भी समीप के अपने विषयों के साथ सम्बद्ध हैं हो। तब भी जिस क्षण में एक ज्ञान की उत्पत्ति होती है, उस क्षण में दसरे ज्ञान या सुखादि रूप आत्मा के दूसरे विशेष गुणों की उत्पत्ति नहीं होती। उस ज्ञान का नाश हो जाने पर दूसरे ज्ञान या सुखादि की उत्पत्ति देखी जाती है। इससे ज्ञान के प्रति आत्मा और इन्द्रिय का संनिकर्ष, एवं विषय और इन्द्रिय का सन्निकर्ष इन दोनों को छोड़ कर तीसरे कारण का भी अनुमान होता है, जिसके संनिहिन रहने से दूसरे ज्ञान सुखादि की उत्पत्ति होती है एवं जिसके संनिहित न रहने पर नहीं होती है, अतः आत्मा और इन्द्रिय का संनिकर्ष एवं इन्द्रिय और विषय का संनिकर्ष ये दोनों ज्ञानादि के उत्पादन में किसी और व्यक्ति को भी अपेक्षा रखते हैं, क्योंकि उनके रहते हुए भी ज्ञानादि की उत्पत्ति नहीं होती है, जैसे कि तन्तु प्रभृति से (ज्ञानादि की उत्पत्ति नहीं होती है)। उन संनिकर्षों को ज्ञानादि के उत्पादन में जिसकी अपेक्षा होती है वही मन हैं। (प्र.) 'जिस समय एक विषय की उपलब्धि होती है, उसी समय अनुपलब्ध दूसरे विषयों के साय भी इन्द्रियों का संनिकर्ष है', इसमें क्या प्रमाण है ? ( उ०) इन्द्रियों के अधिष्ठान ( चक्षुगोलकादि आश्रय प्रदेश, ही प्रमाण हैं । जिस समय (चक्षु से ) रूप की उपलब्धि होती है, उसी समय घ्राणादि इन्द्रियों के साथ भी उनके विषय गन्धादि सम्बद्ध रहते हैं, क्योंकि वे भी अपने ग्राहक घ्राणादि इन्द्रियों के अधिष्ठान के समीप हैं, जैसे कि उपलब्धि कालिक गन्धादि । 'श्रोत्राद्यव्यापारे' इत्यादि से मन की सत्ता में और भी प्रमाण देते हैं। स्मृति भी इन्द्रिय से उत्पन्न होती है, क्योंकि वह भी ज्ञान है, जैसे कि गन्धादि का ज्ञान । श्रोत्रादि इन्द्रियाँ स्मृति के हेतु नहीं हैं, क्योंकि श्रोत्रादि व्यापार के न रहने पर भी बहरे व्यक्ति को भी स्मृति होती है, अतः स्मति का हेतु जो इन्द्रिय वही 'मन' है। केवल इन कहे हुए हेतुओं से ही मन का अनु
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