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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
त्वादयावद्द्रव्यभावित्वाद् बाह्येन्द्रियाप्रत्यक्षत्वाच्च तथाहंशब्देनापि पृथिव्यादिशब्दव्यतिरेकादिति ।
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उनके आश्रय विद्यमान रहें तब तक रहते ही नहीं हैं (अयावद्द्द्द्रव्यभावी हैं) । (४) एवं बाह्य इन्द्रियों से उनका प्रत्यक्ष नहीं होता है । (१०) ' अहम्' शब्द से भी आत्मा का अनुमान होता है, क्योंकि पृथिवी प्रभृति अन्य द्रव्यों के लिए 'अहम्' शब्द का मुख्य प्रयोग कहीं नहीं देखा जाता है ।
न्यायकन्दली
प्रत्यक्ष प्रत्ययत्वात्, तस्मात् सुखादयोऽपि न शरीरेन्द्रियविषयाः । किश्व, योऽनुभविता तस्यैव स्मरणमभिलाषः, सुखसाधनपरिग्रहः, सुखोत्पत्तिः, दुःखप्रद्वेष इति सर्वशरीरिणां प्रत्यात्मसंवेदनीयम् । अनुभवस्मरणे च न शरीरेन्द्रियाणामित्युक्तम् । ततोऽपि सुखादयो न तद्विषयाः । युक्त्यन्तरश्वाह- प्रदेश वृत्तित्वादिति । दृश्यते प्रदेशवृत्तित्वं सुखादीनां पादे मे सुखं शिरसि मे दुःखमिति प्रत्ययात् । ततश्च शरीरेन्द्रियगुणत्वाभावः । तद्विशेषगुणानां व्याप्यवृत्तिव्यभिचारात् । सुखादयः शरीरेन्द्रियविशेषगुणा न भवन्ति, अव्याप्यवृत्तित्वात् । ये तु शरीरेन्द्रियविशेषगुणास्ते व्याप्यवृत्तयो दृष्टाः, यथा रूपादयः, न च तथा सुखादयो व्याप्यवृत्तयः, तस्मान्न शरीरेन्द्रियगुणा इति व्यतिरेकी । कर्णशष्कुल्यवच्छिन्नस्य नभोदेशस्य
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में 'हेतु' और 'शब्द' इन दोनों की ( अर्थात् अनुमान प्रमाण और शब्द प्रमाण की ) अपेक्षा नहीं है | ( यत: शरीर और इन्द्रिय अहम् प्रत्यय के विषय नहीं हैं ) अत: सुखादि भी शरीर और इन्द्रिय के धर्म नहीं हैं । एवं यह सभी शरीरधारियो का अनुभव है कि स्मरण, अभिलाषा, सुख के साधनों का ग्रहण, सुख की उत्पत्ति, दुःख के प्रति द्वेष प्रभृति अनुभव करने वाले को ही होते हैं । यह कह चुके हैं कि अनुभव और स्मरण दोनों शरीर और इन्द्रियों को नहीं हो सकते । इस हेतु से भी शरीरादि सुखादि के आश्रय नहीं हैं 'सुखादि के आश्रय शरीरादि नहीं हैं' इसमें 'प्रदेश वृत्तित्वात्' इत्यादि से दूसरी युक्ति भी देते हैं । 'पैर में सुख है, और शिर में वेदना
।
है' इत्यादि प्रतीतियों से समझते हैं कि सुखादि प्रदेशवृत्ति हैं, अर्थात् अपने आश्रय के किसी एक देश में ही रहते हैं । इससे यह सिद्ध होता है कि सुखादि शरीर इन्द्रियों के गुण नहीं हैं, क्योंकि सुखादि विशेषगुण कभी 'व्याप्यवृत्ति' अर्थात् अपने आश्रय के समस्त अंशों में रहनेवाले नहीं होते । शरीर और इन्द्रियों के जितने भी विशेष गुण हैं, सभी व्याप्यवृत्ति अर्थात् अपने आश्रय के सभी अंशों में रहनेवाले होते हैं, जैसे कि रूपादि । सुखादि रूपादि विशेष गुणों की तरह व्याप्यवृत्ति नहीं हैं, अतः सुखादि शरीर और इन्द्रियों के गुण नहीं हैं
।
यह व्यतिरेक व्याप्ति जनित अनुमान भी ( 'सुखादि