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न्यायकन्दलीसंलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ द्रव्ये आत्म
प्रशस्तपादभाष्यम्
ते च न शरीरेन्द्रियगुणाः, कस्मादहङ्कारेणैकवाक्यताभावात् प्रदेशवृत्तिशरीर और इन्द्रिय के गुण नहीं हैं, क्योंकि (१) अहङ्कार के साथ उनकी प्रतीत नहीं होती है। (२) वे अपने आश्रय के किसी प्रदेश में रहते है। (३) जब तक
न्यायकन्दली
सिद्धे बाल्यावस्थानुभूतस्य वृद्धावस्थायामस्मरणप्रसङ्गात् ।
न केवलं पूर्वोक्तहेतुभिः, सुखदुःखेच्छाद्वेषादिभिश्च गुणैर्गुण्यनुमीयते । अहङ्कारेणाहमितिप्रत्ययेनैकवाक्यत्वमेकाधिकरणत्वं सुखादीनां 'अहं सुखी, अहं दुःखी' इत्यहङ्कारप्रत्ययविषयस्य सुखाद्यवच्छेद्यस्य प्रतीतेः। अहं प्रत्ययश्च न शरीरालम्बन:, परशरीरेऽभावात्। स्वशरीरे एवायं भवतीति चेन्न, अविशेषात्। शरीरालम्बनोऽहंप्रत्ययः स्वशरीवत् परशरीरमपि चेत् प्रत्यक्षं तत्र यथा स्थूलादिप्रत्ययः स्वशरीरे परशरीरेऽपि भवति, एवमहमिति प्रत्ययोऽपि स्यात्, स्वरूपस्योभयत्राविशेषात् । स्वसम्बन्धिताकृते तु विशेषे तत्कृत एवायं प्रत्ययो न शरीरालम्बनः, तदालम्बनत्वे चान्तर्मुखतयापि न भवेत्। अत एवायं नेन्द्रियावलम्बनः, इन्द्रियाणामतीन्द्रियत्वात्, अस्य च लिङ्गशब्दानपेक्षस्य मान लेने पर) बाल्यावस्था में अनुभूत विषय का स्मरण वृद्धावस्था में अनुपपन्न हो जायगा।
केवल पहिले कहे हुए हेतुओं से ही नहीं, किन्तु सुख, दुःख, इच्छा, द्वेषादि गुणों से भी गुणी आत्मा का अनुमान होता है। 'अहङ्कार से', 'अहम्' इस प्रकार की प्रतीति से, एवं सुखादि के एकवाक्यत्व अर्थात् एकाधिकरणत्व से भी ( आत्मा का अनुमान होता है), क्योंकि अहं सुखी, अहं दुःखी' इत्यादि प्रतीतियों में 'अहम्' शब्द के अर्थ का सुखादि युक्त रूप से ही भान होता है, 'अहम्' इस आकार की प्रतीति का विषय शरीर नहीं हो सकता है, क्योंकि दूसरे के शरीर में 'अहम्' इस आकार की प्रतीति नहीं होती है। केवल अपने ही शरीर में 'अहम्' शब्द की प्रतीति होती है। (प्र.) ( यतः) अपने ही शरीर में 'अहम्' इस आकार की प्रतीति होती है, ( अत: वही अहं प्रत्यय का विषय हो)। ( उ०) इस कथन में कोई विशेष नहीं हैं, क्योंकि 'अहम्' यह प्रतीति यदि शरीर विषयक है तो फिर स्वशरीरविषयक और परशरीर विषयक दोनों होगी, जैसे कि स्थूलत्व का प्रत्यक्ष होता है, वह स्वशरीर में भी होता है एवं पर शरीर में भी होता है। इसी प्रकार 'अहम्' प्रतीति भी दोनों में समान होगी, क्योंकि स्वशरीर और परशरीर के स्वरूपों में कोई अन्तर नहीं है। यदि अपना सम्बन्ध ही अपने शरीर में विशेष मानें ? तो फिर वह प्रतीति उस सम्बन्ध विषयक ही होगी (आत्मविषयक नहीं) । एवं 'अहम्' प्रतीति अगर शरीर विषयक हो तो फिर अन्तमुखतया उसकी उत्पत्ति नहीं होगी। अत एव 'अहम्' प्रतीति इन्द्रिय विषयक भी नहीं है, क्योंकि इन्द्रियाँ अतीन्द्रिय हैं, एवं 'अहम्' प्रतीति प्रत्यक्षरूप है, क्योंकि इस
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