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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ द्रव्ये आत्म
न्यायकन्दली श्रोत्रेन्द्रियभावमापन्नस्य यश्शब्दो गुणो भवति स तद्विवरव्यापीत्यव्यभिचारः । इतोऽपि न शरीरेन्द्रियगुणाः सुखादयो भवन्ति, अयावद्दव्यभावित्वात्, व्यतिरेकेण रूपादय एष निदर्शनम् । इन्द्रियगुणप्रतिषेधे तु नायं हेतुः, श्रोत्रगुणेन शब्देनानैकान्तिकत्वात् । इतोऽपि न शरीरेन्द्रियगुणा: सुखादयो बाह्येन्द्रियाप्रत्यक्षत्वात् । शरीरेन्द्रियगुणानां द्वयी गतिः-अप्रत्यक्षता गुरुत्वादीनाम्, बाह्येन्द्रियप्रत्यक्षता रूपादीनाम् । विधान्तरन्तु सुखादयस्तस्मान्न तद्गुणा इति शरीरेन्द्रियगुणत्वे प्रतिषिद्धे परिशेषात्तैरात्मानुमीयत इति स्थितिः ।
ननु सुखं दुःखञ्चेमौ विकाराविति नित्यस्यात्मनो न सम्भवतः । भवतश्चेत् सोऽपि चर्मवदनित्यः स्यात् । न, तयोरुत्पादविनाशाभ्यां तदन्यस्यात्मनः
शरीरादि के गुण नहीं हैं' ) इसका साधक है । यद्यपि आकाश रूपी विभु-श्रोत्रेन्द्रिय का विशेषगुण शब्द अव्याप्यवृत्ति प्रतीत होता है, तथापि विभु आकाश श्रोत्रेन्द्रिय नहीं है, किन्तु कर्णशष्कुली से सीमित आकाश ही श्रोत्रेन्द्रिय है और इस आकाश में शब्द व्याप्यवृत्ति ही है। अत: इन्द्रियादि के विशेषगुण अवश्य ही व्याप्यवृत्ति होते हैं। इस नियम में कोई व्यभिचार नहीं है । 'सुखादि शरीर और इन्द्रियों के गुण नहीं है' इसमें यह हेतु भी है कि वे अयावद्रव्य भावी' हैं (अर्थात् वे आश्रय रूप द्रव्य के विद्यमान समय तक बराबर नहीं रहते ), अयावद्रव्यभावित्व हेतु के न्याय प्रयोग में भी रूपादि ही व्यतिरेक दृष्टान्त हैं । 'सुखादि इन्द्रिय के विशेष गुण नहीं है' अयावद्रव्य हेतुक अनुमान इसका साधक नहीं है ( इस अनुमान से केवल यही सिद्ध होता है कि सुखादि शरीर के गुण नहीं हैं ). क्योंकि यह हेतु श्रोत्रेन्द्रिय के शब्द रूप गुण में व्यभिचरित है। इस हेतु से भी सुखादि शरीर और इन्द्रियों के गुण नहीं हैं, क्योंकि सुखादि का बाह्य इन्द्रियों से प्रत्यक्ष नहीं होता है। वस्तुस्थिति यह है कि शरीर और इन्द्रियों के गुण के दो ही प्रकार हैं (१) किन्हीं गुणों का तो किसी भी प्रकार प्रत्यक्ष ही नहीं होता है जैसे कि गुरुत्वादि का, या फिर (२) बाह्य इन्द्रियों से ही प्रत्यक्ष होता है, जैसे कि रूपादि का। सुखादि दोनों प्रकारों से भिन्न तीसरे प्रकार के हैं, अतः शरीरादि के गुण सुखादि नहीं हैं। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाने पर कि 'सुखादि शरीर और इन्द्रियों के गुण नहीं हैं' इन सुखादि हेतुओं से होनेवाले परिशेषानुमान से भी आत्मा का अनुमान होता है।
(प्र०) सुख और दुःख ये दोनों तो विकार है, अत: वे नित्य आत्मा के गुण नहीं हो सकते, अगर विकार स्वरूप सुखादि भी आत्मा के गुण हों तो फिर आत्मा चर्म की तरह अनित्य वस्तु होगी। (प्र.) नहीं, क्योंकि सुख और दुःख दोनों की उत्पत्ति और विनाश से उन दोनों से भिन्न आत्मा के स्वरूप में कोई विघटन नहीं
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