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[ द्रव्ये आत्म
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
न तावद् ब्रह्मणोऽस्त्यविद्यायोगः, शुद्धबुद्धस्वभावत्वात् । जीवाश्रयाविद्येति चान्योन्याश्रयदोषपराहतम्, अविद्याकृतो जीवभेदो जीवाश्रयाविद्येति । बोजाहुकुरवदनादिरविद्या जीवप्रभेद इति चेत् ? बीजाङकुरव्यक्तिभेदवदविद्याजीवयोः पारमाथिकत्वाभादादनुपपन्नं व्यक्तिभेदेन च बीजाङकुरयोरन्योन्यकारणता, जीवस्तु सर्वासु भवकोटिष्वेक एव, मानुषपशुपक्ष्यादियोनिप्रत्यग्रजातस्य शिशोर्जातिसाम्यादाहारविशेषाभिलाषेण तासु तासु जातिषु जन्मान्तरकृतस्य तत्तदाहारविशेषस्यानुमानपरम्परया तस्यानादिशरीरयोगप्रतीतेः, तत्राविद्याकृतो जीवभेदो जीवभेदाच्चाविद्येत्यसङ्गतिः । ब्रह्मवज्जीवस्याप्यनादिनिधनत्वेन ब्रह्मप्रतिबिम्बता, तस्मात् “तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति" इति श्रुतिप्राण्यादनादिनिधनं ब्रह्मतत्त्वमेवेदं सर्वदेहेषु प्रतिभासत इति न वाच्यम्, तथा सति चानुपपन्ना व्यवस्थितेति सूक्तं 'नानात्मानो व्यवस्थात' इति ।
वह हो नहीं सकती है, क्योंकि वे शुद्ध, बुद्ध और मुक्तस्वभाव के हैं। अगर अविद्या का आश्रय जीव को मानें, तो फिर अन्योन्याश्रय दोष होगा, क्योंकि अविद्या से ही जीव की कल्पना की जाती है और वह अविद्या उसी में आश्रित है। अविद्या के रहने से ही वह जीव होगा एवं जीव के रहने से ही अविद्या की सत्ता रहेगी, इन दोनों में पहिले कौन होगा ? और पीछे कौन ? यह निर्णय असम्भव है, अतः इस निर्णय के बल पर कोई भी निर्णय सम्भव नहीं है। (प्र०) बीज और अकुर की तरह जीव और अविद्या का सम्बन्ध भी अनादि है । ( उ० ) जब बीज और अकुर नाम के दो स्वतन्त्र वस्तु हैं, तब यह स्वीकार करना पड़ता है कि अङकुर के कारण बीज का भी कोई दूसरा अङ्कुर ही कारण है । अतः अन्योन्याश्रय से दूषित होते हुए भी बीज और अङ्कुर का सामान्य कार्यकारणभाव मानना पड़ता है। किन्तु जीव और अविद्या वास्तव में दो व्यक्ति नहीं हैं, अतः यहाँ अन्योन्याश्रयदोष को सह्य करना उचित नहीं है । ( प्र० ) संसार के सभी देहों में जीव एक ही है। मनुष्य, पशु, पक्षी प्रभृति जिस योनि में अभी उसका जन्म होता है उस जाति के विशेष प्रकार के भोजन की अभिलाषा से उस जीव में इससे पहिले जन्म में भी इस प्रकार के आहार का अनुमान होता है और यही अनुमान की परम्परा जीव में शरीर के अनादि सम्बन्ध को प्रमाणित करती है । (उ०) इस पक्ष में भी अविद्या के कारण जीवों में भेद एवं जीवभेद के कारण अविद्या, यह असङ्गति है ही। (प्र.) ब्रह्म की तरह जीव भी आदि और अन्त से रहित है, फलतः जीव ब्रह्म का ही प्रतिबिम्ब है। "तमेव भान्तम्' इत्यादि श्रुतियां भी इस अर्थ को पुष्ट करती हैं, अतः आदि और अन्त से रहित ब्रह्मतत्त्व ही सभी देहों में प्रतिभासित होता है । ( उ०) इस पक्ष में भी
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