________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
२०८
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये आत्म
प्रशस्तपादभाष्यम् तस्य गुणा बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्कारसङ्ख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागाः। आत्मलिङ्गाधिकारे बुद्धथादयः
(१) बुद्धि, (२) सुख, (३) दुःख, (४) इच्छा, (५) द्वेष, (६) प्रयत्न, (७) धर्म, (८) अधर्म, (६) संस्कार, (१०) संख्या, (११) परिमाण, (१२) पृथक्त्व, (१३) संयोग और (१४) विभाग ये चौदह गुण आत्मा के हैं। 'आत्मलिङ्गाधिकार' अर्थात् 'प्राणापानादि' (३।२।४) सूत्र के द्वारा बुद्धि से प्रयत्न पर्यन्त
न्यायकन्दली रेकः समानधिकरणत्वाभावः, अहं पृथिव्यहमुदकमिति प्रयोगाभावात् , तस्मान्नायं पृथिव्यादिविषयः । ननु शरीरविषय एवायं दृश्यते स्थूलोऽहमिति? न, अहं जानामि अहं स्मरामीतिप्रयोगात्। शरीरस्य च ज्ञानस्मृत्यधिकारणत्वं निषिद्धम्, तस्मादात्मोपकारकत्वेन लक्षणया शरीरे तस्य प्रयोगः, यथा भूत्येऽहमेवायिमिति व्यपदेशः।
एवं व्यवस्थिते सत्यात्मनो गुणान् कथयति-तस्य च गुणा इत्यादिना। बुद्धयादीनामात्मनि सद्भावे सूत्रकारानुमति दर्शयति-आत्मलिङ्गाधिकारे बुद्धयादयः प्रयत्नान्ता: सिद्धा इति। आत्मलिङ्गाधिकार इति प्राणापानादिसूत्रं लक्षयति । धर्माधर्मावात्मान्तरगुणानामकारणत्ववचनादिति । धर्माधर्मा. वात्मान्तरगुणानामकारणत्वादिति वचनासिद्धौ । दातरि वर्तमानो दानधर्मः प्रतिगृहीतरि अधर्म जनयतीति कस्यचिन्मतं निषेद्ध सूत्रकृतोक्तम्
(प्र.) 'अहम्' शब्द तो शरीर के लिए ही प्रयुक्त दीखता है, जैसे कि 'स्थूलोऽहम्' इत्यादि । (उ०) नहीं, "अहं जानामि, अहं स्मरामि” इत्यादि भी प्रयोग होते हैं। यह कह चुके हैं कि अनुभव और स्मृति शरीर के धर्म नहीं हैं, अतः शरीर चूंकि आत्मा को उपकार पहुँचाने वाला है, अतः आत्मा के वाचक 'अहम्' शब्द का लक्षणावृत्ति से शरीर में भी प्रयोग होता है, जैसे कि भृत्य में 'यह मैं ही हूँ' यह प्रयोग होता है ।
___ इस प्रकार आत्मा की सिद्धि हो जाने पर 'तस्य च गुणाः' इत्यादि से आत्मा के गुण कहे जाते हैं । आत्मलिङ्गाधिकारे बुद्ध यादयः प्रयत्नान्ताः सिद्धाः' इत्यादि से आत्मा में बुद्धयादि गुणों की सता में सूत्रकार की अनुमति सूचित करते हैं । 'आत्मलिङ्गाधिकार' शब्द से 'प्राणापानादि' सूत्र सूचित होता है । 'धर्माधर्मावात्मान्तरगुणानामकारणत्ववचनात्" अर्थात् 'आत्मान्तरगुणानामात्मान्तरेऽकारणत्वात्” (६।१।५) सूत्रकार की इस उक्ति से आत्मा में धर्म और अधर्म की सिद्धि समझनी चाहिए। किसी का कहना है कि दाता के दानजनित धर्म से ग्रहण करनेवाले पुरुष में अधर्म की उत्पत्ति होती है, इस मत को खण्डन करने के लिए सूत्रकार ने 'आत्मान्तरगुणानाम्' इत्यादि सूत्र लिखा है। इस सूत्र का अभिप्राय है कि जैसे कि एक आत्मा का धर्मरूप गण
For Private And Personal