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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
द्रव्ये आत्म
न्यायकन्दली तु नायं विधिस्तस्यानपेक्षत्वात्, ज्वालादिषु सामान्यविषयं प्रत्यक्षं विशेषविषयश्वानुमानमित्यविरोधान्न प्रत्यक्षेणानुमानोत्पत्तिनिषेध इत्यलम् ।
योऽप्यतिप्रौढिम्ना प्रत्यक्षसिद्धं क्षणभङ्गमाह तस्यानुभवाभाव एवोत्तरम् । नीलमेतदिति प्रतिपत्तिर्न क्षणिमेतदिति नीलत्वाव्यतिरेकिणी क्षणिकता, तस्याः पृथगर्थक्रियाया अभावात् । अतो नीलत्वे गृह्यमाणे क्षणिकत्वमपि गृह्यते, सुसदृशक्षणभेदाग्रहणात् । तथा नाध्यवसीयत इति चेत् ? अहोऽपरः प्रज्ञाप्रकर्षो यदयमनुभवमपि व्याख्याय कथयति । यन्नाध्यवसितं तदगृहीतमिति मृगतृष्णिकेयम, प्रत्यक्षबलोत्पन्नादध्यवसायादन्यस्य प्रत्यक्षदृष्टत्वव्यवस्थानिबन्धनस्यानभ्युपगमात् । यस्मिन्नध्यवसीसमाने नियमेन नाध्यवसीयते नीलपीतयोरिव तयोस्तादात्म्याभिधानमपि प्रलापः । क्षणिकं प्रत्यक्षं ज्ञानं स्वसमानकालवत्तिनीमर्थस्य सत्ता परिच्छिन्दत् तत्कालासम्बद्धतां व्यवच्छिन्दत् तत्कालभावाव्यभिचारिणः कालान्तरसम्बन्धमपि व्यवच्छिन्दत् तदेकक्षणावस्थायित्वं क्षणिकत्वं गृह्णातीति
सभी अनुमान भ्रम ही नहीं होते । ( उ० ) दीपशिखा स्थल में प्रत्यक्ष केवल सामान्य विषयक होता है और अनुमान विशेष विषयक होता है, अतः विभिन्न विषयक होने के कारण वहाँ प्रत्यक्ष से अनुमान का बाध नहीं होता है ।
जो कोई अति प्रौढ़तावश क्षण भङ्ग को प्रत्यक्षप्रमाण से ही सिद्ध करना चाहते हैं उनके लिए अनुभव का अभाव ही उत्तर है। क्योंकि यह नोल है' यही प्रतीति होती है यह 'क्षणिक है' इस प्रकार की प्रतिति नहीं होती है । ( प्र०) नीलत्व से क्षणिकत्व कोई भिन्न वस्तु नहीं है, क्योंकि क्षणिकत्व का कोई कार्य नहीं है, अतः यदि नीलत्व गृहीत होता है तो क्षणिकत्व भी ज्ञात हो ही जाता है। यह नील है' इस बुद्धि में क्षणिकत्व के स्कुट प्रतिभास न होने का यह हेतु है कि दोनों (नीलक्षण और क्षणिकत्व का प्रतिभा क क्षण) अत्यन्त सदृश है । (उ.) यह तो बड़ी विलक्षण प्रज्ञा है कि जो अनुभव की भी व्याख्या करके यह समझाती है कि 'जो आपने नहीं समझा है वह भी उस अनुभव का विषय है' अत: ( उक्त कथन से अभिप्राय सिद्धि की अभिलाषा) भृगतृष्णा ही है। क्योंकि 'अमुक वस्तु प्रत्यक्ष सिद्ध है' इस व्यवस्था का मूल प्रत्यक्ष प्रमाण जनित निश्चय से भिन्न और किसी को नहीं माना जा सकता। जिसके निश्चित हो जाने पर जो अवश्य ही निश्चित नहीं हो जाते. जैसे की नील और पीत उन दोनों को अभिन्न कहना भी प्रलाप ही है। (प्र.) क्षणमात्र स्थायी प्रत्यक्षात्मक ज्ञान अपने काल में रहनेवाली वस्तु को सता को समझाता हुआ एवं उस वस्तु में उस काल का असम्बद्धता को हटाता हुआ उस काल में रहनेवाली वस्तु की सत्ता के अव्यभिचारी दूसरे काल के सम्बन्ध का भी निषेध करता हुआ उस वस्तु के एक
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