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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[ द्रव्ये आत्मप्रशस्तपादभाष्यम् शरीरपरिगृहीते वायो विकृतकर्मदर्शनाद् भस्त्राध्मापयितेव, निमेषोन्मेषकर्मणा नियतेन दारुयन्त्र प्रयोक्तेव, देहस्य वृद्धिक्षतभग्नसंरोहणादिनिमित्त( उ०) वायु की गति स्वभावतः कुटिल होती है, किन्तु उसके विपरीत प्राण वायु की गति कभी ऊर्ध्व भी देखी जाती है, अतः भाथी को चलाने वाले की तरह शरीर सम्बन्धी वायु को भी ऊपर की तरफ चलाने वाला कोई अवश्य है। उसी का नाम है 'आत्मा' । (५) निमेष और उन्मेष की क्रिया से भी कठपुतली को नचाने वाले की तरह आत्मा का अनुमान होता है । (६) देह की वृद्धि, घाव एवं टूटे हुए अङ्गों
न्यायकन्दली कथनम्। साधनोपादानपरिवर्जनद्वारेण हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्था चेष्टा प्रयत्नपूर्विका विशिष्टक्रियात्वात् रथक्रियावत् । शरीरं वा प्रयत्नवदधिष्ठितं विशिष्टक्रियात्वात् रथवत् । प्राणादिभिश्चेति । प्राणादिभिश्च प्रयत्नवाधिष्ठाताऽनुमीयत इत्यनुषञ्जनीयम् । प्राणादिभिरित्यनेन "प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियविकार: सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नाश्चात्मनो लिङ्गानि" इति सूत्रोक्ततमस्तलिङ्गपरिग्रहः । कथमिति प्रश्नपूर्वकं प्राणापानयोलिङ्गत्वं दर्शयति---शरीरपरिगृहीत इति। वायुस्तिर्यग्गमनस्वभावः, शरीरपरिगृहीते वायौ प्राणापानाख्ये विकृतं स्वभावविपरीतं कमौर्ध्वगमनमधोगमनञ्च दृश्यते, तस्मात् प्रयत्नवान् विग्रहस्याधिष्ठातानुमीयते, यस्तथा वायु प्रेरयति, अन्य
किया गया है। 'रथकर्मणा सारथिवत्' यह वाक्य अनुमान का दृष्टान्त दिखाने के लिए है। सुखसाधनों के ग्रहण के द्वारा ही जिस चेष्टा से हित की प्राप्ति होती है, एवं दु:ख साधनों के परिवर्जन के द्वारा ही जिस चेष्टा से आहत का परिहार होता है, रे दोनों प्रकार की चेष्टायें प्रयत्न से उत्पन्न होती हैं क्योंकि ये विशेष प्रकार की क्रियायें हैं जैसे कि रथ को क्रिया। अथवा प्रयत्न से युक्त कोई व्यक्ति ही शरीर का अधिष्ठाता है. क्योंकि उसमें विशेष प्रकार की क्रिया है जैसे कि रथ में । 'प्राणादिभिश्च' अर्थात् प्राणादि से भी प्रयत्न से युक्त अधिष्ठाता का अमान होता है" यह अनुषन कर लेना चाहिए। प्राणादिभिः' इस 'आदि' पद घटित हेतु वाक्य से प्राणापानादि, निमेष, उन्मेष, जीवन, मन की गति.. इन्द्रिय का विकार आदि "सुखदुःखेन्छाद्वेषप्रयत्नाश्चात्मनो लिङ्गानि' (३ अ. २ आ. ४ सू.) इस सूत्र के द्वारा कथित सभी हेतु अभीष्ट हैं । कथम् ?' इस वाक्य के द्वारा प्रश्न करके 'शरीरपरिगृहीत" इत्यादि वाक्य से प्राण और अपान वायु में आत्मानुमान का हेतुत्व दिखलाते हैं । टेढ़े मेढ़े चलना वायु का स्वभाव है, किन्तु शरीर की प्राण और अपान नाम की वायुओं में विकृत' अर्थात् उन स्वभाव से विपरीत क्रमशः ऊर्ध्वगति और अधोगति देखी जाती
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