________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
१९४
www.kobatirth.org
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् न्यायकन्दली
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
[ द्रव्ये आत्म
कालावच्छिन्नमेकं वस्तुतत्त्वम्, तदप्यस्य विषयो न भवतीति संविद्विरुद्धम् । ग्रहणस्मरणे च नैकं विषयमालम्बेते, तस्मादेकमेवेदं विज्ञानमिति प्रतीतिसामर्थ्याप्रतीयमान कार्य्योत्पत्तये दुभयविषयमास्थेयम् । चाप्रतीयमानमपि कारणं कल्पयन्ति विद्वांसो, न तु कारणाप्रतीत्या विशदमपि कार्य्यमपह्न ुवते, जगद्वैचित्र्यस्याप्यपह्नवप्रसङ्गात् । तेन यद्यपि प्रत्येकमिन्द्रियसंस्कारावसमथ तथापि संहताभ्यामिदमेकं कार्यं प्रत्यभिज्ञास्वभावं प्रभावयिष्यते, भविष्यति चैतदुभयकारणसामर्थ्यादुभयविषयम्, प्राप्स्यति च प्रत्यक्षतां विषयेन्द्रियसामर्थ्यानुविधानात् । न च यत्रैकैकमसमर्थ तत्र मिलितानामपि तेषा - मसामर्थ्यम् ? प्रत्येकमकुर्वतामपि क्षित्युदकन्बीजानामन्योन्यसन्निधिभाजामकुरादिजननोपलब्धेः । यत्र विलक्षणा सामग्री तत्र कार्य्यमपि विलक्षणमेव स्यादिति सुप्रतीतम्, तेनास्य सन्निहितातन्निहितविषयतालक्षणे प्रत्यक्षतापरोक्षते न विरोत्येते । अत एव चेन्द्रियसन्निकर्षाभावेऽपि पूर्वकालप्रत्यक्षतैव, इन्द्रिय
For Private And Personal
होती है । यह अनुभव से बाहर की बात है कि 'वह एक वस्तु प्रत्यभिज्ञा का विषय नहीं है' यहाँ स्मृति और अनुभव दोनों एक विषयक नहीं हैं । अतः उक्त प्रत्यभिज्ञा नाम की प्रतीति से यह कल्पना करनी पड़ेगी कि एक ही विज्ञान उभय
करते हैं । कारण
कहलाएगी।
वह
विषयक | विद्वान् लोग दृष्ट कार्य से अष्ट कारण को कल्पना की अप्रतीति से अनुभूत कार्य का ही अपलाप नहीं करते । ऐसा करने पर संसार की विचित्रता ही लुप्त हो जायगी । ( अतः यह कल्पना करनी पड़ेगी कि ) यद्यपि संस्कार और इन्द्रिय इन दोनों में से प्रत्येक प्रत्यभिज्ञा रूप कार्य के उत्पादन में असमर्थ हैं तथापि मिलकर वे ही दोनों उक्त प्रत्यभिज्ञा रूप कार्य का सम्पादन कर सकते हैं । उक्त दोनों कारणों के प्रभाव से यह प्रत्यभिज्ञा पूर्वकाल और उत्तर काल दोनों विषयक होंगी । एवं इन्द्रियजन्य होने से प्रत्यक्ष भी यह कोई वात नहीं है कि जो स्वयं अकेला जिस कार्य को न कर सके, दूसरे के साथ मिलकर भी उस कार्य को न कर सके | क्योंकि पृथिवी जल और बोज इनमें से प्रत्येक अङ्कुर के उत्पादन में असमर्थ होने पर भी तीनों मिल कर अङ्कुर का उत्पादन करते ही हैं। रही यह बात कि एक ही प्रत्यभिज्ञा में इन्द्रियों से जन्य होने के कारण प्राप्त संनिहित विषयवाला 'प्रत्यक्षत्व' एवं संस्कार से उत्पन्न होने के कारण प्राप्त असंनिहित विषयवाला परोक्षत्व' परस्पर विरुद्ध इन दोनों धर्मों का समावेश कैसे होगा ? किन्तु यह अनुभव की बात है कि सामग्री की विलक्षणता से कार्य की दिलक्षणता होती है । फलतः ये दोनों धर्मं परस्पर विरुद्ध हो नहीं हैं । अत एव इन्द्रियसंनिकर्ष के न रहने पर भी 'पूर्वकाल' में भी प्रत्यक्षविषयत्व है क्योंकि वह इन्द्रियजन्य ज्ञान का विषय है । इन्द्रियजन्य ज्ञान