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१६५
प्रकरणम् ।
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली जज्ञानविषयत्वात् तन्मात्रानुबन्धित्याच्च प्रत्यक्षतायाः । असन्निहितमपि परिच्छिन्ददिन्द्रियं पूर्वकालतामेव परिच्छिनति न भविष्यत्कालताम्, तत्र संस्कारस्य सहकारिणोऽभावात् । न चैकस्थोभयकालतायां काचिदनुपपत्तिः, येनास्योभयकालतां सङ्कलयतः कल्पनात्वम्, दृष्टो टेकस्यानेकेन विशेषणेन सम्बन्धो यथा चैत्रस्य छत्रपुस्तकाभ्याम् । युगपच्छत्रपुस्तकसम्बन्ध क्रमेण कालद्वयसम्बन्धे च न कश्चिद् विशेषः, एफस्योभयविशेषणावच्छेदप्रतीतेरुभयत्राविशेषात् । तदेवं देशकालावस्थाभेदानुगतमेकं वस्ततत्वमध्यवसन्ती प्रत्यभिज्ञा भावानां प्रतिक्षणमुत्पादविनाशौ तिरयतीति । भ्रान्तेयं प्रतीतिरिति चेन्न, बाधकाभावात् । क्षणभङ्गसाधनमेतस्या बाधकमिति चेत् ? प्रत्यक्षबाधे सत्यबाधितविषयत्वादनुमानोदयः, उदिते च तस्मिन् प्रत्यक्षवाध इत्यन्योन्याश्रयत्वम् । प्रत्यक्ष
विषयत्व ही (विषयनिष्ठ ) प्रत्यक्षत्व है। ( इन्द्रिय समिकर्ष उसका प्रयोजक नहीं है )। असं निहित विषयों में से इन्द्रियाँ पूर्वकालिक विषयों को ही ग्रहण करती हैं भविष्यत्कालिक विषयों को नहीं, क्योंकि ( असंनिहित वषयक प्रत्यक्ष का ) संस्कार रूप सहकारी नहीं रहता है'। ( अतः ) वर्तमान और अतीत काल विषयक एक ज्ञान में कोई विरोध नहीं है, जिससे कि दोनों कालविषयक प्रत्यभिज्ञा रूप ज्ञान में भ्रमत्व को कल्पना की जाय । एक ही वस्तु में अनेक निशेषणों का सम्बन्ध हो सकता है, जैसे कि छाता और पुस्तक दोनों के साथ एक ही चैत्र का सम्बन्ध देखा भी जाता है। चैत्र में इन दोनों के और एककालिक सम्बन्ध और विभिन्न कालिक सम्बन्ध में कोई अन्तर नहीं है। क्योंकि एक ही विशेष्य में दोनों विशेषणों से वैशिष्ट्य की प्रतीति दोनों { चैत्र और प्रत्यभिज्ञा ) स्थानों में समान ही है। तस्मात् उक्त रीति से विभिन्न देश विभिन्न काल और विभिन्न अवस्था इन तीनों में एक ही वस्तुतत्त्व को समझाने वाली उक्त प्रत्यभिज्ञा भावों की प्रतिक्षण उत्पत्ति और विनाश ( क्षणभङ्ग) को जड़ मूल से उखाड़ फेंकती है। (प्र.) उक्त प्रत्यभिज्ञा तो भ्रान्ति है ? ( उ०) क्यों ? कोई बाधक तो नहीं है ? (प्र०) क्षणभङ्ग के साधक ही उक्त प्रत्यभिज्ञा के प्रमात्व के बाधक हैं। ( उ० ) इसमें यह अन्योन्याश्रय दोष है यतः उक्त प्रत्यभिज्ञा रूप प्रत्यक्ष बाधित है अतः क्षणिकत्व का अनुमान होता है. और वह प्रत्यक्ष बाधित क्यों है ? क्योकि अनुमान के द्वारा क्षणिकत्व सिद्ध है । प्रत्यक्ष में यह बात नहीं है, क्योंकि उसे किसी दूसरे प्रमाण की अपेक्षा नहीं है । (४०) प्रत्यक्ष प्रमाण से दीप की शिखा अनेक कालों तक रहनेवाली प्रतीत होती है, किन्तु सभी मतों से सिद्ध अनुमान के द्वारा यह निर्णीत है कि वहाँ प्रतिक्षण ज्वाला की उत्पत्ति होती है । अतः प्रत्यक्ष से बाधित
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