________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली तेषां सर्वदा सर्वेषां प्रतिबन्धस्याशक्यत्वात् कश्चिदेको निपतत्येव । कालान्तरे च निपतितः क्षणेनैव भावं विनाशयतीत्युपपद्यते कृतकत्वेऽपि ध्रुवो विनाशः ।
सर्वञ्चैतत्क्षणभङ्गसाधनं कालात्ययापदिष्टम्, प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षेण प्रतीतस्य पुनः प्रतीतेः । नन्वेष प्रत्ययो न भावस्य पूर्वापरकालावस्थानं शक्नोति प्रतिपादयितुम्, न तदेकं विज्ञानम्, कारणाभावात् । इन्द्रियं सन्निहितविषयं न पूर्वकालत्वभवगाहते, संस्कारोऽपि पूर्वानुभवजन्मा तद्विषये नियतो नापरकालतां परिस्पृशति, न च ताभ्यामन्यदुभयविषयं किञ्चिदेकमस्ति यदेतद् विज्ञानं प्रसुवीत । इतोऽपि नैतदेकं विज्ञानं स्वभावभेदात्, इदमिति हि प्रत्यक्षता तदिति हि परोक्षत्वम्, प्रत्यक्षतापरोक्षत्वे च परस्परविरोधिनी नैके युज्येते, तस्माद् ग्रहणस्मरणात्मके द्वे इमे संवित्ती भिन्नविषये । अत्र ब्रूमः--प्रतीयते तावदेतस्माद् विज्ञानात् पूर्वापर
का प्रतिरोध असमान है । अतः नियमित कालों में से किसी क्षण में कोई अप्रतिरुद्ध कारण रह ही जायगा, बही कारण उनी क्षण में भाव का विनाश कर देगा। इस प्रकार कृतिजन्य होने पर भी विनाश के ध्र वभावित्व में कोई बाधा नहीं है।
क्षणभङ्ग ( भाव एक क्षण में उत्पन्न होते हैं और उसके बाद के अगले ही क्षण में नष्ट हो जाते हैं इस सिद्धान्त ) के साधक उक्त मभी हेतु कालात्ययापदिष्ट' अर्थात् बाध रूप हेत्वाभास से दूषित हैं। क्योंकि जिस घट को कल देखा था उसी को मैं आज देखता हूँ' इस प्रत्यभिज्ञा से ज्ञात वस्तु ही फिर से ज्ञात होती है। (१०) यह प्रत्यभिज्ञा नाम का प्रतीति अपने विषय घट में पूर्वकालवतित्व और उत्तरकालवतित्व इन दोनों को ही समझा सकती है, क्योंकि कारण की अनुपपत्ति से यह एक विज्ञान ही सिद्ध नहीं होती है। इन्द्रियाँ अपने स निहित विषयों को ही ग्रहण करती हैं उनके पूर्वकालिकत्वादि को नहीं। संस्कार भी चूकि पूर्वानुभव जनित है अतः पहिले अनुभूत विषयों की ही स्मृति को उत्पन्न कर सकता है, उत्तरकालिक त्व विषयक स्मृति को नहीं । पूर्वकालिक रव और उत्तर कालिकत्व इन दोनों को छोड़ कर कोई दूसरा उभय' यहाँ नहीं है, जिनसे युक्त घट विषयक ज्ञान को वह जन्म दे । प्रत्यभिज्ञा नाम का कोई एक विज्ञान नहीं है। इसमें यह हेतु भी है कि 'उसको' यह प्रत्यक्षत्व का द्योतक है जिसको' यह परोक्ष त्व का द्योतक है। परोक्षत्व और प्रत्यक्षत्व दोनों परस्पर विरोधी हैं। परस्पर विरुद्ध दो वस्तुएँ एक काल में एक ही वस्तु में सम्बद्ध नहीं हो सकती हैं। अतः उक्त प्रत्यभिज्ञा वस्तुतः दो ज्ञानों का एक समूह है, जिसमें 'जिस घट को' यह अंश स्मृगि रूप है एवं 'उसी को मैं देखता हूँ' यह अंश अनुभव रूप है किन्तु दोनों ही भिन्न विषय के है । ( उ० ) इस आक्षेप के समाधान में मैं कहता हूँ कि इस प्रत्यभिज्ञा से पूर्वकाल और उत्तर काल दोनों से सम्बद्ध एक ही वस्तुत्व की प्रतीति
२५
For Private And Personal