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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये आत्म
न्यायकन्दली मनः सोऽस्माकमात्मेति । अथ नापेक्षते करणान्तरम्, तदा रूपरसादिष्विन्द्रियसम्बद्धेषु युगपदालोचनानि प्रसज्यन्ते, कारणयोगपद्यात् । कारणान्तरापेक्षायां तु तस्याणुत्वे सर्वेन्द्रियेषु सान्निध्याभावाद्युगपदालोचनानुत्पत्तिः । अथान्तःकरणाभावो युगपत्स्मरणानि स्युरपेक्षणीभावात् करणापेक्षायां तु तत्संयोगस्य युगपदसामर्थ्यात् क्रमेण स्मृत्युत्पत्तिः।
यत्तूक्तं केनचिदेकस्य नित्यस्य क्रमयोगपद्याभ्यामकरणमिति ! तदयुक्तम्, युगपत्करणासम्भवात्, उत्तरकालमकरणञ्च कर्तव्याभावात् ! न च तावता तस्य सत्त्वम्, अर्थक्रियाकारित्वव्यतिरिक्तस्य सत्त्वस्येष्टत्वात् ।
इतोऽपि मनोगुणो ज्ञानं न भवति, मनसः स्वयं करणत्वादित्याह-स्वयं
की आत्मा है। यदि किसी अन्य (करण) इन्द्रिय की अपेक्षा नहीं होती है तो फिर एक ही क्षण में एक ही अधिकरण में स्मृति और अनुभव दोनों की उत्पत्ति अनिवार्य होगी, क्योंकि एक ही समय दोनों की सामग्री तैयार है। अगर दूसरे कारण की अपेक्षा मानते हैं और मन को अणु मान लेते हैं तो एक काल में अनेक इन्द्रियों के साथ उसका सम्बन्ध नहीं हो सकता, अतः ज्ञान योगपद्य' (अर्थात् एक आश्रय में एक क्षण में अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति ) की आपत्ति होगी। (प्र. ) यह ठीक है कि मन को चक्षुरादि से भिन्न किसी दूसरे करण की भी आवश्यकता रहती है, किन्तु वह करण' अन्तःकरण नहीं है। ( उ०) तब भी एक काल में अनेक स्मृतियों की आपत्ति रहेगी, क्योंकि स्मृति के उत्पादन में बाह्य किसी भी करण की आवश्यकता नहीं होती है ? अगर अन्तःकरण मान लेते हैं तो फिर अन्तःकरण में एक काल में अनेक स्मृतियों के उत्पादन का सामर्थ्य नहीं रहता है, अतः उससे क्रमशः ही स्मृतियाँ उत्पन्न होंगी।
(प्र.) एक एवं नित्य कोई वस्तु कारण ही नहीं हो सकती. क्योंकि कारण का यह स्वभाव है कि या तो वह एक ही समय अपने सभी कामों को करेगा ( यही युगपत्कारित्व है) या क्रमशः ही अपने कामों को करेगा ( यही क्रमकारित्व है)। इन दोनों में से कोई भी किसी नित्य एक वस्तु में सम्भव नहीं है । अतः नित्य आत्मा ज्ञान का समवायिकारण नहीं हो सकता । (उ०) एक ही कारण से होनेवाले सभी कार्य किसी एक ही क्षण में हो ही नहीं सकते क्योंकि ऐसा मान लेने पर वह उसके बाद कारण ही नहीं रह जायगा। यतः उसी सम्पादित होनेवाले सभी कार्य हो चुके हैं, अब उसे कुछ करना नहीं है। एवं यह भी कोई नियम नहीं है कि जो किसी का कारण न हो उसकी सत्ता ही उठ जाय। जो किसी का कारण नहीं है, उसकी भी सत्ता मानने में कोई बाधा नहीं है।
'मन स्वयं ही करण है' इस हेतु से भी ज्ञान मन का गुण नहीं है, यही बात
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