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प्रकरणम्] भाषानुवादसहितम्
१७६ न्यायकन्दली यत्रैकमेव समर्थ तत्रापरेषां क उपयोग इति चेद् ? सत्यम्, न ते प्रेक्षापूर्वकारिणो यदेवं विमृश्योदासते । एकं कार्य्यमनेकस्मादुत्पद्यत इति दुर्घटमिदम्, कारणभेदस्य कार्यभेदहेतुत्वादिति चेन्नैवम्, सामग्रीभेदाद्धि कार्य्यभेदो न सहकारिभेदात्, एककार्यकारितैव सहकारिता, तस्मात् क्षणिकत्वे कमवतां भावानां क्रमेण कार्यकरणं घटते, दुर्घटा तु अक्षणिकस्यार्थक्रियेति । युगपत्करणमपि दुर्घटम्, तावत्कार्यकरणसमर्थस्य स्वभावस्योत्तरकालमप्यनिवृतेः । कृतस्य करणं नास्ति, कर्तव्यञ्चास्य न विद्यते । निखिलस्य कार्यकलापस्य सकृदेव कृत. त्वात् अतः क्षणान्तरे न करोतीति चेत् ? तहि अयं तदानीमसन्नेव, समस्तार्थक्रियाविरहात् । तदेवं व्यापकयोः क्रमयोगपद्ययोरनुपलम्भेनाक्षणिकान्निवर्तमानं कारण क्या करते हैं, ठीक है वे उस एक कारण से किए जाते हुए कार्य को ही करते हैं ? (प्र.) एक कारण से उत्पन्न हुए कार्य को ही शेष कारण नहीं करते हैं किन्तु एक के द्वारा सम्पादित होते हुए कार्य का ही सम्पादन शेष कारण भी करते हैं। ( उ० ) जहाँ एक ही कारण से कार्य सम्पादन की सम्भावना है वहाँ और कारणों का क्या उपयोग है ? (प्र. ) यह आक्षेप सत्य है, किन्तु वे कारण तो कुछ समझ कर काम करने की क्षमता नहीं रखते कि एक ने इस काम को कर ही दिया तो हम लोगों को इस झंझट से क्या प्रयोजन ? यह समझकर इस से उदासीन हो जाय । ( उ०) फिर भी यह दुर्घट ही है कि समान शक्ति वाले अनेक कारणों से एक ही कार्य की उत्पत्ति हो, क्योंकि कारणों के भेद से ही कार्यो के भेद होते हैं। (फलतः विभिन्न कारणों से विभिन्न ही कार्य होंगे, एक कार्य नहीं) (प्र.) यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि सहकारियों के भेद से कार्यो का भेद नहीं होता है, किन्तु सामग्रियों ( कारणसमूहों) के भेद से कार्यों में भेद होता है। एक कार्यकारित्व ही अर्थात् मुख्य कारण से होनेवाले कार्य को मुख्य कारण के साथ मिलकर करना ही 'सहकारित्व' है। अतः वस्तुओं को क्षणिक मानने पर ही क्रमशील भावों से क्रमशः कार्य की उत्पत्ति की सम्भावना है । अक्षणिक स्थिर वस्तुओं से कार्य की उत्पत्ति सम्भव ही नहीं है । एवं युगपत्कारित्व ( एक ही काल में अनेक कार्यों का सम्पादन ) भी सम्भव नहीं है, क्योंकि एक ही काल में अनेक कार्यों की सम्पादकता ही 'युगपत्कारिता' है, इस युगपत्कारिता रूप सामर्थ्य का तो कारणों से लोप नहीं होगा ? तब फिर उन्हीं कार्यों की उत्पत्ति बराबर होती रहेगी। ( उ० ) उत्पन्न कार्यों की फिर से उत्पत्ति नहीं हो सकती है। अपने से होनेवाले सभी कार्यों का सम्पादन वह कर चुका है यतः उस को कुछ कर्तव्य भी नहीं है। अतः उसके बाद वह कार्य का सम्पादन नहीं कर सकता । (प्र०) फिर आगे के क्षणों में उस की सत्ता ही सम्भव नहीं है, क्योंकि उन क्षणों में उस में किसी किसी अर्थक्रिया का
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