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न्यायकन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
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[ द्रव्ये आकाश
न्यायकन्दली
अत्रो
यामप्रस्तुतमेव कथं स्यात् ? तस्माद् भावस्वभाव एव विनाश इति 1 च्यते- उत्पन्नो भावः किमेकक्षणावस्थायी ? किं वा क्षणान्तरेऽप्यवतिष्ठते ? क्षणान्तरावस्थितिपक्षे तावत्क्षणिकत्वव्याहतिः, अनेककालावस्थानात्, एकक्षणावस्थायित्वे तु क्षणान्तरे स्थित्यभाव इति न भावाभावयोरेकत्वम्, कालभेदात् । अथ मतं न ब्रूमो भावः स्वस्यैवाभावः, किन्तु द्वितीयक्षणः पूर्वक्षणस्याभाव इति, तदप्यसारम्, पूर्वापरक्षणयोर्व्यक्तिभेदेऽपि स्वरूपविरोधस्याभावात् । यथा घटो भिन्नसन्ततिवर्तिना घटान्तरेण सह तिष्ठति, एवमेकसन्ततिर्वात्तिनाऽपि सह तिष्ठेत्, द्वितीयक्षणग्राहिप्रमाणान्तरस्य तत्स्वरूपविधेश्चरितार्थस्य प्रथमक्षणे निषेधे प्रमाणत्वाभावात् । अभावस्तु भावप्रतिषेधात्मैव, घटो नास्तीति प्रतीत्युदयात् । ततस्तस्योत्पत्तिर्भावस्य निवृत्तिः, तस्यावस्थानं भावस्यानवस्थितिः, तस्योपलम्भो भावस्यानुपलम्भ इति युक्तम्, परस्परविरोधात् । एवश्व सति न भावस्य क्षणिकत्वं पश्चाद् भाविनस्तदभावस्य हेत्वन्तरसापेक्षस्य भावानन्तर्य्यनियमाभावात्, तथा च दृश्यते घटस्योत्पन्नस्य चिरेणैव विनाशो मुद्गराभिघातात् ।
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अतः
भाव एवं अभाव दोनों अभिन्न ही हैं । ( उ० ) इस पर यह पूछना है कि उत्पन्न भाव एक ही क्षण तक रहता है ? या अनेक क्षणों तक भी ? यदि अनेक क्षणों तक उसको सत्ता मानें तो फिर अनेक क्षणों में रहने के कारण उनका क्षणिकत्व ही व्याहत हो जायगा । यदि एक ही क्षण तक वस्तु की सत्ता मानें तो फिर आगे के क्षण में उत्पन्न होनेवाले विनाश काल में तो उस की सत्ता ही नहीं है फिर भाव और विनाश दोनों एक कैसे हैं ? ( प्र० ) हम यह तो कहते नहीं कि भाव अपने ही अभाव अभिन्न है किन्तु ( हमारा यह कहना है कि ) द्वितीयक्षण पूर्वक्षण का ही अभाव है । ( उ० ) यह कथन भी असङ्गत ही है क्योंकि पूर्वक्षण रूप व्यक्ति और उत्तरक्षण रूप व्यक्ति भिन्न ही हैं, और उन में कोई विरोध नहीं है । जैसे एक घट दूसरे घट के साथ विद्यमान रहता है. वैसे ही क्षण समूहरूप एक ममुदाय के भी दूसरे व्यक्तियों के साथ रहने में कोई बाधा नहीं है । द्वितीय क्षण का ज्ञापक प्रमाण उसी में चरितार्थ हो जायगा | अतः प्रथमक्षण के निषेध में वह लागू नहीं होगा । भाव का प्रतिषेध ही अभाव है, क्योंकि 'घट नहीं है' इस प्रकार से अभाव की प्रतीति होती है । अतः अभाव की उत्पत्ति ही भाव की निवृत्ति है और अभाव का रहना ही भाव का न रहना है एवं अभाव की उपलब्धि ही भाव की अनुपलब्धि है, क्योंकि भाव और अभाव दोनों परस्पर विरोधी हैं । अतएव भाव क्षणिक भी नहीं हैं, क्योंकि भावों
बाद दूसरे हेतुओं से उत्पन्न होनेवाले अभावों का यह नियम नहीं हो सकता कि भाव की उत्पत्ति के अव्यवहित क्षण में ही उत्पन्न हों। यह देखा भी जाता है कि घटादि