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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[प्रव्ये आत्म
न्यायकन्दली
सत्त्वमर्थक्रियाकारित्वम्, तच्च क्रमयोगपद्याभ्यां व्याप्तम्, क्रमाक्रमालात्मकस्य प्रकारान्तरस्यासम्भवात् । अनेकार्थक्रियाणामनेककालता हि क्रमः, योगपद्यं चंककालता । न चैकानेकाभ्यामन्यः प्रकारोऽस्ति, परस्परविरुद्धयोरेकप्रतिषेधस्येतरविधिनान्तरीयकत्वात् । अक्षणिकत्वे तु न क्रमसम्भवः, समर्थस्य क्षेपायोगात् ।
हैं, क्षणिक वस्तुओं में आधाराधेयभाव सम्भव ही नहीं है। (अभिप्राय यह है कि अर्थक्रियाकारित्व ही सत्य है, सत् वही है जो किसी कार्य का कारण हो) अर्थक्रियाकारित्व क्रम और यौंगपद्य का व्याप्य है। कार्यों की उत्पत्ति के क्रम एवं अक्रम ( योगपद्य) ये दो ही प्रकार हैं। इन दोनों को छोड़कर इसका कोई तीसरा प्रकार नहीं है। अनेक अर्थक्रियाओं (कार्यों ) की एक काल में उत्पत्ति ही 'क्रम' है। एक काल में अनेक कार्यों की उत्पत्ति ही 'अक्रम' या योगपद्य है, अतः इन दोनों को छोड़कर कार्योत्पति का कोई तीसरा प्रकार नहीं है। परस्पर विरुद्ध दो वस्तुओं में से एक के प्रतिषेध के बिना दूसरे का विधान नहीं हो सकता। अगर वस्तुओं को क्षणिक न मानें तो कार्यों की यह क्रमशः उत्पत्ति सम्भव नहीं होगी, क्योंकि जिसमें जिस कार्य
है या नहीं ?' इस विकल्प को अगर विधिकोटि माने, अर्थात् यह कहें कि बीजों में अंकुर के उत्पादन की शक्ति है तो फिर बीज से सर्वदा-बीजों को कोठियों में रहने के समय भी-अंकुरों की उत्पत्ति होनी चाहिए। अगर निषेधकोटि माने, अर्थात् यह कहें कि बीजों में अंकुरों के उत्पादन करने का सामर्थ्य नहीं है, तो फिर कभी भी--खेत में बोने पर भी-बीजों से अंकुरों की उत्पत्ति नहीं होगी। अत: अंकुर के अव्यवहित पूर्वक्षण में बीज में एक विलक्षण धर्म की उत्पत्ति होती है, जिसका नाम है 'कुर्वद्रूपत्व' । इस रूप से ही बीज अंकुर का कारण है, केवल बीजत्व रूप से नहीं, कोठियों के बीजों में बीजस्व के रहने पर भी यह 'अंकुरकुर्वद्रूपत्व' धर्म नहीं है, अतः कोठी के बीजों से अंकुरों की उत्पत्ति नहीं होती है। इस प्रकार खेत में बोये हुए बीजों से कोठी के बीज भिन्न हैं, क्योंकि यह सम्भव नहीं है कि एक ही वस्तु में एक ही जाति रहे भी और न भी रहे। बीजों की यह विभिन्नता प्रत्येक क्षण में विभिन्न बीजों की उत्पत्ति के बिना सम्भव नहीं है, अतः यह समझमा चाहिए कि किसी भी वस्तु को क्षणिक माने बिना उसमें अर्थक्रियाकारित्व सम्भव ही नहीं है । एवं सत्त्व अर्थक्रियाकारित्व रूप ही है, अत: यह उपसंहार कर सकते हैं कि जो भी सत् है वह अवश्य ही क्षणिक है, जैसे कि बीज, तस्मात् सभी वस्तुएँ क्षणिक हैं।
___ आत्मा को अगर ज्ञान का समवायिकारण मानें तो उसे भी क्षणिक मानना ही पड़ेगा । अगर आत्मा क्षणिक है तो वह किसी का आश्रय नहीं हो सकता । अत: आत्मसिद्धि को कथित युक्तियां ठीक नहीं हैं।
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