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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली का प्रयुज्यते कार्ये व्यापार्यते, यथा वास्यादिकं वर्धकिणा। करणञ्च श्रोत्रादिक तस्मात् केनचित् प्रयोक्तव्यं य एषां प्रयोक्ता स आत्मा। आकाशस्य श्रोत्रस्य यद्यप्यात्मना सह साक्षात् सम्बन्धो नास्ति, विभुत्वात्, तथाप्यात्मना तस्य प्रयोज्यत्वमन्तःकरणाधिष्ठानद्वारेण, यथा हस्तेन सन्दंशयोगिना तत्संयुक्तस्यायःपिण्डस्य संयोगः । करणत्वञ्च श्रोत्रादीनां नियतार्थस्य ग्राहकत्वात, प्रदीपवत् । यद्यप्यात्मा अहं भमेति स्वकर्मोपार्जितकार्यकारणसम्बन्धोपाधिकृतकर्तृतास्वामित्वरूपसम्भिन्नो मनसा संवेद्यते, तथाप्यत्राप्रत्यक्षत्ववाचोयुक्तिर्बाह्येन्द्रियाभिप्रायेण ।
शब्दादिषु प्रसिद्धया च प्रसाधकोऽनुमीयते । शब्दादिषु विषयेषु प्रसिद्धिर्ज्ञानं तत्रापि प्रसाधको ज्ञातानुमीयते। ज्ञानं क्वचिदाश्रितं, क्रियात्वात्, छिदिक्रियावत् यत्रेदमाश्रितं स आत्मा।
अथेदं स्वयमेव जानाति, न पराश्रितमिति चेत् ? किमिदं नित्यम?
जैसे बढ़ई के द्वारा वसुला प्रभृति करण । श्रोत्रादि इन्द्रियाँ भी करण हैं। अतः उनका भी कोई प्रयोग करनेवाला चाहिए। वह प्रयोक्ता ही आत्मा है। यद्यपि श्रोत्र आकाश रूप होने के कारण विभु है । एवं आत्मा भी विभु है। दो विभु किसी भी साक्षात् सम्बन्ध से परस्पर सम्बद्ध नहीं हो सकते, तथापि आत्मा से अधिष्ठित मन के साथ सम्बन्ध के द्वारा आत्मा में श्रोत्र रूप करण का भी प्रयोज्यकत्र्तृत्व है। जैसे कि तपे हुए लोहे को बढ़ई सीधे हाथ से नहीं छूता। हाथ से सड़सी को और सड़सी से तपे हुए लोहे को, तब भी हाथ में प्रयोज्यकत्र्तृत्त्व रहता ही है, क्योंकि चिमटे से संयुक्त लोहे के साथ भी चिमटे से संयुक्त हाथ का भी सम्बन्ध है हो । श्रोत्र शब्द-प्रत्यक्ष का ही करण है दूसरे प्रत्यक्ष का नहीं। चक्षुरूपप्रत्यक्ष का ही करण है रसादि का नहीं। अतः इन्द्रियाँ प्रदीप की तरह नियत अर्थों की ही प्रकाशक होने से 'करण' हैं। यद्यपि अपने कर्मों से उपाजित शरीर एवं इन्द्रियादि के सम्बन्ध रूप उपाधि के द्वारा स्वामित्व मिश्रित कत्तृत्त्व रूप से आत्मा मानसप्रत्यक्ष का भी विषय है, क्योंकि हम जानते हैं कि यह मेरा शरीर है, मेरी आँखें सुन्दर हैं, अतः अप्रत्यक्षत्व की युक्तियाँ बाह्य प्रत्यक्ष के अभिप्राय से कही गई समझनी चाहिए ।
(२) 'शब्द'दिषु प्रसिद्धया च प्रसाधको ज्ञातानुमीयते' अर्थात् शब्दादि रूप विषयों में जो 'प्रसिद्धि' अर्थात् ज्ञान, उससे आत्मा का अनुमान होता है। जैसे कि ज्ञान कहीं पर आश्रित है, क्योंकि वह क्रिया है। जैसे कि छेदनादि क्रिया । यह ज्ञान रूप क्रिया जहां पर आश्रित है वही 'आत्मा' है ।
(प्र.) यह ज्ञान स्वयं ही विषय को समझ लेता है, इसके लिए इसे किसी दूसरी वस्तु में आश्रित होने की आवश्यकता नहीं होती है। (उ०) यह ज्ञान नित्य
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