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न्याय कन्दली संघलित प्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
करणैः शब्दाद्यपलब्ध्यनुमितैः श्रोत्रादिभिः समधिगमः क्रियते । वास्यादीनां करणानां कर्त्त प्रयोज्यत्वदर्शनात् शब्दादिषु प्रसिद्धया च
कारण बाह्य इन्द्रियों से गृहीत नहीं होता है । ( १ ) अतः शब्दादि प्रत्यक्ष से अनुमित होनेवाले श्रोत्रादिकरणों (इन्द्रियों) के द्वारा आत्मा का अनुमान करते हैं । यह देखा जाता है कि बसुला आदि करण बढ़ई रूप कर्ता के सम्बन्ध से ही छेदनादि कार्य करते हैं । (२) शब्दादि विषयक ज्ञानादि क्रियाओं से भी
न्यायकन्दली
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[ द्रव्ये आत्म
सामान्यं तदभिसम्बन्धादात्मेति व्यवहारः ।
कुत
इदमस्येतरेभ्यो वैधर्म्यम् । ननु दृश्यस्य सत्त्वं तदाकारसंवेदनेन व्याप्तम्, न चात्माकारं कस्यचित्संवेदनमस्ति, अतो व्यापकानुपलब्ध्या तस्य सत्त्वमेव निराक्रियत कुतो धर्मनिरूपणमित्याशङ्क्य तत् सद्भावे बाधकं प्रमाणं नास्ति, प्रत्यक्षानुपलब्धेरन्यथासिद्धत्वात् साधकवच प्रमाणमनुमानमस्तीति प्रतिपादयन्नाह - तस्येति । प्रत्यक्षोपलब्धियोग्यता विरहः सौक्ष्म्यम् । तस्मादप्रत्यक्षस्यात्मनः करणैः शब्दाद्युपलब्धयः करणसाध्याः क्रियात्वाच्छिदिक्रियावदित्यनुमितैः श्रोत्रादिभिः समधिगमः क्रियते । इत्याह- वास्यादीनां करणानां कर्त्तृ प्रयोज्यत्वदर्शनात् । यत्करणं तत् केनचित् शब्द का अर्थ है आत्मत्व नाम की जाति । उसी के सम्बन्ध से 'यह आत्मा है' इस प्रकार का व्यवहार होता है । यह 'आत्मत्व' जाति ही अन्य पदार्थों की अपेक्षा आत्मा का वैधर्म्य असाधारणधर्म या इतरभेदानुमितिजनक हेतु है । ( प्र० ) उसी वस्तु की सत्ता स्वीकार की जाती है. जो अपने आकार द्वारा ज्ञान का विषय हो, किन्तु आत्मा का कोई भी आकार उपलब्ध नहीं है, अतः अस्तित्व के व्यापक 'स्वाकारविषयत्व' के अभाव से हम आत्मा के अस्तित्व का ही खण्डन करते हैं। फिर उसके धर्मों का निरूपण क्यों ? इस शङ्का के दो समाधान करते हैं एकतो आत्मा की सत्ता में बाधा डालने वाला कोई प्रमाण ही नहीं है । 'प्रत्यक्षानुपलब्धेः ' हेतु अन्यथासिद्ध है अर्थात् आत्मत्वाभावका साधक नहीं है । क्योंकि बाह्य इन्द्रियों से आत्मा का प्रत्यक्ष न
होने का कोई अन्य ही हेतु है, आत्मा की असत्ता नहीं । दूसरे आत्मा की सत्ता का ज्ञापक अनुमान प्रमाण है । आत्मा की असत्त्वापत्ति का समाधान करते हुए तस्य ' इत्यादि पंक्ति लिखते हैं । प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा ज्ञात होने की अयोग्यता ही 'सौक्ष्म्य'
शब्द का अर्थ है । अत: ( १ ) प्रत्यक्ष से ज्ञात न होने शब्दादि की ये उपलब्धियाँ करणजन्य हैं, क्योंकि ये भी छेदनादि क्रिया' इस प्रकार के अनुमानों से सिद्ध श्रोत्र आत्मा का अनुमान होता है । 'वास्यादीनाम्' इत्यादि से करते हैं ।
होता है
कैसे कर्ता के द्वारा ही
पर भी 'श्रोत्रादि करणों से'
क्रियारूप हैं । जैसे कि आदि करणों के द्वारा
इस प्रश्न का समाधान
? करण कार्य में प्रवृत्त होते हैं ।