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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
दिग्लिङ्गा विशेषादञ्जसैकत्वेऽपि दिशः परममहर्षिभिः श्रुतिस्मृति
सर्वत्र समान रूप से हैं, लोकव्यवहार के लिए
यतः दिक् के ज्ञापक उक्त प्रतीति रूप सभी हेतु अतः यह भी वस्तुतः एक ही है । किन्तु श्रुति स्मृति एवं
न्यायकन्दली
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ननु दिग्लिङ्गाविशेषो न सिद्ध:, पूर्वापरादिप्रत्ययानां परस्परतो भेदात् । तथा च सति दिशो भेद इति युक्तम् ? न, एकस्मिन्नेवार्थे युगपद्वस्त्वन्तरापेक्षया पूर्वापरादिप्रत्ययोत्पत्तेः, दिग्भेदे हि यत्पूर्वं न तत्र पश्चिमप्रत्ययो भवेत् । सर्वदिक्सम्बन्धस्तस्यास्तीति चेत् ? तहि सर्वार्थेषु सर्वापेक्षया सर्वेषां सर्वे प्रत्ययाः प्रसज्येरन् । न चैवम्, तस्मादेका दिक्, प्रत्ययभेदस्तूपाधिभेदात् ।
पूर्वमादित्य संयोगस्य तदार्जवावस्थितस्य च द्रव्यस्यान्तराले (पूर्वेति) दक्षिति, अस्तमयसंयोगस्य तदार्जवावस्थितस्य च द्रव्यस्यान्तराले पश्चिमेति, यत्रादित्य संयोगो न दृश्यते तत्र मध्याह्नसंयोगप्रगुणाव स्थित द्रव्यापेक्षयोत्तरव्यवहारः, तासामन्तरालेषु पूर्वदक्षिणादिव्यवहार इत्युपपद्यते प्रतीतिभेदः । आदित्यसंयोग. निबन्धन एवास्तु प्रत्ययः ? न तस्य मूर्त्तद्रव्यसंयोगाभावात् असम्बद्धस्य च प्रत्ययहेतुत्वासम्भवात् । एतदेव दर्शयति- दिग्लिङ्गा विशेषादिति । दिश एकत्वे
( प्र ० ) सभी दिशाओं में तो दिग्बुद्धि के वे हेतु एक से नहीं हैं, क्योंकि पूर्वापरादि प्रत्यय परस्पर भिन्न प्रकार के होते हैं । अतः दिशाओं को भी अनेक मानना पड़ेगा । ( उ० ) यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि एक ही समय एक ही वस्तु में अवधि रूप वस्तुओं के भेद पूर्वपश्चिमादि नाना प्रतीतियों की उपपत्ति हो सकती है । अगर वे वास्तव में भिन्न हों तो फिर पूर्व दिशा में विद्यमान वस्तु में कभी पश्चिम दिशा की प्रतीति ही नहीं होगी । ( प्र०) उस वस्तु में सभी दिशाओं का सम्बन्ध है ? ( उ० ) तो फिर सभी वस्तुओं में सभी वस्तुओं की अपेक्षा सभी को पूर्वापरादि प्रत्यय होना चाहिए, किन्तु होते नहीं हैं । तस्मात् ' दिकू' एक ही है । उपाधियों के भेद से उसमें नानात्व की प्रतीति होती है । सूर्य का प्रथम संयोगाधिकरण देश एवं उसके सामने के पूर्वदिशा की प्रतीति होती है । सूर्य के अस्तकालिक संयोग के प्रदेश एवं उसके सम्मुख द्रव्य के बीच पश्चिम दिशा की प्रतीति होती है । मध्याह्नकालिक सूर्य के संयोगवाले प्रदेश के एक ओर दक्षिण और दूसरी ओर उत्तर की प्रतीति होती है । इस प्रकार विभिन्न प्रतीतियों की उपपत्ति होती है । (प्र०) सूर्य के उक्त संयोग ही पूर्वादि दिशाओं का व्यवहार मान लिया जाय ? ( 30 ) नहीं, क्योंकि उन मूर्त्त द्रव्यों के साथ सूर्य का संयोग सम्बन्ध नहीं है । असम्बद्ध वस्तु ज्ञान का कारण नहीं हो सकती है । यह " दिग्लिङ्गा विशेषात् " से दिखलाते हैं । इस प्रकार दिक् में एकत्व की सिद्धि हो जाने
द्रव्य इन दोनों के बीच में