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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये दिक्
प्रशस्तपादभाष्यम् तस्यास्तु गुणाः सङ्ख्यापरिमाणपृथकत्वसंयोगविभागाः कालवदेते सिद्धाः।
काल की तरह इसके (दिशा के) भी संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग और विभाग ये ही पाँच गुण हैं ।
न्यायकन्दली स्यात् । अवधावियं पञ्चमीति चेत् ? सत्यम्, किन्त्वधित्वं दिगपेक्षया, न तु द्रव्यमात्रस्य, सर्वत्राविशेषप्रसङ्गात् । तस्या अप्रत्यक्षत्वेऽपि कालव विशिष्ट प्रत्ययहेतुत्वं वाच्यम् । गुणवत्त्वं द्रव्यलक्षणं तदस्यामस्तीति प्रतिपादयन्नाह-तस्यास्तु गुणा इत्यादि । कालवदेते सिद्धाः, यथा काललिङ्गाविशेषात् कालस्यैकत्वं सिद्धं तथा दिग्लिङ्गाविशेषाद् दिश एकत्वम्, यथा तदनुविधानात् काले पृथक्त्वं तथा दिशि, यथा कारणे काल इति वचनात् परममहत्परिमाणं तथा कारणे दिगिति वचनाद् दिशः परममहत्परिमाणम् । सर्वत्र तत्कार्यस्य पूर्वापरादिप्रत्ययस्य भावात् । यथा कारणपरत्वाच्चेति कालस्य संयोगगुणत्वं प्रतिपादितं तथा दिशोऽपि, यथा संयोगविनाशकत्वात् काले विभागः सिद्धस्तथा दिशीत्यतिदेशार्थः । दिशा के वह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि केवल उक्त मूर्त द्रव्य को ही अवधि मानने से सभी दिशाओं की प्रतीति सभी वस्तुओं में समान रूप से होगी। दिशा स्वयं यद्यपि अप्रत्यक्ष है, फिर भी काल की ही तरह विशिष्ट बुद्धि का कारण है। दिशा में गुणवत्त्व रूप द्रव्य का लक्षण है' यह प्रतिपादन करते हुए 'तस्यास्तु गुणाः' इत्यादि पंक्ति लिखते हैं । 'काल की ही तरह इसमें भी इन गुणों की सत्ता समझी जाती है' । अर्थात् जैसे सभी कालों में योगपद्यादि प्रत्यय रूप ज्ञापक हेतुओं के समान रूप से रहने के कारण एकत्व संख्या की सिद्धि होती है, वैसे ही सभी दिशाओं में दिशा के ज्ञापक उक्त पूर्वापरादि प्रत्ययों के होने से दिशा में भी एकत्व संख्या की सिद्धि जाननी चाहिए। जैसे एक त्व संख्या की व्याप्ति से काल में एकपृथक्त्व की सिद्धि की है, वैसे ही दिशा में भी एकपृथक्त्व की सिद्धि समझनी चाहिए। जैसे 'कारणे कालः' सूत्रकार की इस उक्ति से काल में परममहत्परिमाण की सिद्धि की गयी है, वैसे ही 'कारणे दिक्' सूत्रकार की इस उक्ति से दिशा में भी परममहत्परिमाण रूप गुण समझना चाहिए । क्योंकि सर्वत्र दिशा के कार्य पूर्व, पश्चिम आदि प्रतीतियां होती हैं। जैसे 'कारणपरत्वाच्च' इस सूत्र के अनुसार कालका संयोगगुण प्रतिपादित है, वैसे दिशा में भी संयोगगुण समझना चाहिए। जैसे विनाशशील संयोग की सत्ता से काल में विभाग नाम के गुण की सिद्धि की गयी है, वैसे ही दिशा में भी समझना चाहिए । यही 'कालव देते सिद्धा:' इस अतिदेश वाक्य का अर्थ है।
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