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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ब्रव्ये विक्
प्रशस्तपादभाष्यम् दिक् पूर्वापरादिप्रत्ययलिङ्गा । मूर्त्तद्रव्यमवधिं कृत्वा मूर्तेवेव द्रव्येष्वेतस्मादिदं पूर्वेण दक्षिणेन पश्चिमेनोत्तरेण पूर्वदक्षिणेन दक्षिणापरेणापरोत्तरेणोत्तरपूर्वेण चाधस्तादुपरिष्टाच्चेति दश प्रत्यया यतो भवन्ति सा दिगिति, अन्यनिमित्तासम्भवात् ।
____ यह पूर्व है, यह पश्चिम है' इत्यादि प्रतीतियों से अनुमित होनेवाला (द्रव्य ही) दिक् है। किसी मूर्त द्रव्य को अवधि बनाकर किसी दूसरे मूर्त द्रव्य में ही इससे यह पूर्व है या इससे यह दक्षिण है, पश्चिम है, उत्तर है, पूर्वदक्षिण है, दक्षिणापर है, अपरोत्तर है, उत्तरपूर्व है, इससे ऊपर है या इससे नीचे है, ये दश प्रकार के ज्ञान जिससे होते हैं उसे ही 'दिक्' कहते हैं। इन प्रतीतियों का कोई अन्य ( असाधारण ) कारण सम्भव नहीं है।
न्यायकन्दली इति व्यपदिश्यत इत्यर्थः । मणेरुपाधिसम्बन्धो न वास्तवः, कालस्य तु क्रियासम्बन्धो वास्तव इति प्रतिपादयितुं दृष्टान्तान्तरमाह-पाचकेति । यथैकस्य पुरुषस्य पचनादिक्रियायोगात् पाचक इति, पाठक इति व्यपदेशस्तथा कालस्यापि, न तु प्रारम्भादिक्रियैव कालः, विलक्षणबद्धिवेद्यत्वादिति ।।
युगपदादिप्रत्ययलिङ्गत्वमिव कालस्य पूर्वापरादिप्रत्ययलिङ्गत्वं दिशो वैधमिति प्रतिपादयन्नाह-दिक् पूर्वापरादिप्रत्ययलिङ्गेति । पूर्वमित्यपरमित्यादिप्रत्ययो लिङ्गं यस्या दिशः सा तथोक्ता । एतदेव दर्शयति-मूर्त्तद्रव्यमित्यादिना। अमूर्तस्य द्रव्यस्य नावधित्वम्, नापि पूर्वापरादिप्रत्ययविषयत्वसे व्यवहृत होता है। मणि एवं उपाधियों का सम्बन्ध अवास्तविक है, किन्तु काल और क्रिया का सम्बन्ध तो वास्तविक है, यही दिखलाने के लिए 'पाचक' इत्यादि सन्दर्भ से प्रकृत विषय के अनुरूप दूसरा दृष्टान्त देते हैं। अर्थात् जिस प्रकार एक ही पुरुष में पाक क्रिया के सम्बन्ध से 'यह पाचक है' एवं पठन क्रिया के सम्बन्ध से यह पाठक है' इत्यादि अनेक व्यवहार होते हैं, वैसे ही काल में भी समझना चाहिए। प्रारम्भादि क्रियायें ही काल नहीं हैं, क्योंकि उनसे विलक्षण काल की प्रतीति होती है।
जैसे योगपद्यादि प्रतीति से ज्ञात होना काल का असाधारण धर्म है, वैसे ही यह पूर्व है, यह पश्चिम है' इत्यादि प्रतीतियों से ज्ञात होना 'दिक् का असाधारण धर्म है' यही वैलक्षण्य प्रतिपादन करते हुए 'दिक् पूर्वापरादिप्रत्ययलिङ्गा' इत्यादि पंक्ति लिखते हैं। “पूर्वमपर मित्यादि प्रत्ययो लिङ्गं यस्याः सा पूर्वापरादिप्रत्ययलिङ्गा” इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसकी ज्ञापक 'यह पूर्व है, यह पश्चिम है' इत्यादि प्रतीतियाँ हैं,
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