________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
१६१
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली तद्विनाशकत्वाद्विभाग इति। तस्य संयोगस्य कृतकत्वादवश्यं विनाशिनो विभागो विनाशकः, सर्वत्राश्रयविनाशाभावात् । अतः काले विभागसिद्धिय॑धिकरणस्य विभागस्याविनाशकत्वात् । तस्थाकाशवद् द्रव्यत्वनित्यत्वे सिद्धे ( इति )। यथा गुणवत्त्वादनाधितत्वाच्चाकाशं द्रव्यं तथा कालोऽपि । यथा समानासमानजातीयकारणाभावान्नित्यमाकाशं तथा कालोऽपि ।
यद्येकः कालः कथं तत्रानेकव्यपदेश इत्याह-काललिङ्गाविशेषादिति । काललिङ्गानां परापरादिप्रत्ययानामविशेषाद् भेदाप्रतिपादकत्वादजसा मुख्यया वृत्त्या कालस्यैकत्वेऽपि सिद्धे नानात्वोपचारान्नानात्वव्यपदेशः। कुतः ? सर्वेषां कार्यणामारम्भ उपक्रमः, क्रियाया अभिनिर्वृत्तिः क्रियायाः परिसमाप्तिः, स्थितिः स्वरूपावस्थानम्, निरोधो विनाशः, एषामुपाधीनां भेदानानात्वव्यपदेशः । यथैको मणिः स्फटिकादिर्नीलाधुपाधिभेदान्नील इति पीत इति व्यपदिश्यते तथा कालोऽप्येक एवोपाधिभेदादारम्भकाल इति, नियाभिव्यक्तिकाल इति, निरोधकाल
गुण की सिद्धि होती है। विभाग चूंकि संयोग का विनाशक है, अतः विभाग भी काल में अवश्य है। अभिप्राय यह है कि संयोग उत्पत्तिशील है, उसके विनाशकों में से विभाग भी एक है क्योंकि सभी जगह संयोग का नाश आश्रय के नाश से ही नहीं होता है। एक अधिकरण में रहनेवाला विभाग अन्य अधिकरण में रहने वाले संयोग का नाश नहीं कर सकता। अत: काल में विभाग भी अवश्य ही है। आकाश की हो तरह इसमें द्रव्यत्व और नित्यत्व भी है, अर्थात् जिस प्रकार अनाश्रितत्व और गुणत्व हेतु से आकाश द्रव्य है, उसी प्रकार उन्हीं हेतुओं से काल भी द्रव्य है। जैसे समानजातीय और असमानजातीय कारणों के अभाव से आकाश नित्य है, वैसे ही काल भी उसी हेतु से नित्य है। यदि काल एक है तो फिर उसमें अनेकत्व की प्रतीति कैसे होती है ? इसी प्रश्न का उत्तर 'काललिङ्गाविशेषात्' इत्यादि से देते हैं। अभिप्राय यह है कि काल को ज्ञापक योगपद्यादि प्रतीतियों के ‘अविशेष' से अर्थात् भेदप्रतिपादक प्रमाण के न रहने से 'अञ्जसा' अर्थात् मुख्यवृत्ति से काल यद्यपि एक ही है, किन्तु लक्षणारूप गौणवृत्ति से उसमें नानात्व का भी व्यवहार होता है, क्योंकि सभी कार्यों का आरम्भ अर्थात् उपक्रम, सभी क्रियाओं की 'अभिनिवृत्ति' अर्थात् समाप्ति, स्थिति' अर्थात् अपने रूप से विद्यमानता, 'निरोध' अर्थात् विनाश, इन उपाधियों की विभिन्नता से एक ही काल में नानात्व का व्यवहार होता है । जैसे एक ही मणि स्फटिकादि और नीलादि उपाधियों से कभी नील और कभी पीत प्रतीत होती हैं, वैसे ही उक्त उपाधियों के भेद से एक ही काल कभी आरम्भकाल, कभी क्रिया को अभिव्यक्ति का काल, कभी निरोधकाल इत्यादि नाना रूपों
For Private And Personal