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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली मस्त्यनवच्छिन्नपरिमाणत्वात् । अत इदमुक्तं मूलद्रव्यमवधि कृत्वा, मूर्तेष्वेव द्रव्येष्विदमस्मात् पूर्वेणेत्यादिप्रत्यया यतो भवन्ति सा दिगिति । एतस्मादिदं पूर्वमित्यस्मिन्नेवार्थे पूर्वेणेति निर्देशः, प्रातिपदिकार्थे तृतीयोपसङ्खयानाद् ।
ननु पूर्वापरादिप्रत्ययानां कार्यत्वात्कारणमनुमीयते, तत्तु दिगेवेति कुतो निश्चयः ? तत्राह-अन्यनिमित्तासम्भवादिति। न तावत् पूर्वापरादिप्रत्ययानां द्रव्यमात्रं निमित्तम्, यथाकथञ्चिदवस्थिते द्रव्ये तेषामुत्पत्तिप्रसङ्गात् । परस्परापेक्षया द्रव्ययोरुत्पत्तिनिमित्तत्वेऽपि स एव दोषः, उभयाभावप्रसङ्गश्चाधिकः । क्रियागुणादिनिमित्तत्वे च समानगुणक्रियादिषु प्रत्ययविशेषो न स्यात् । तेन यदेषां निमित्तं सा दिगिति । यत्रैतस्मादिदमिति पञ्चमी प्रयुज्यते, अन्यथा सापि निविषया वही 'पूर्वापरादिप्रत्ययलिङ्गा' शब्द का अर्थ है। यही 'मूर्तद्रव्यमवधि कृत्वा' इत्यादि से समझाते हैं । अमूर्त (आकाशादि) द्रव्य किसी के अवधि नहीं हो सकते और न वे उक्त पूर्वापरादि प्रत्यय के विषय ही हैं, क्योंकि उनमें परममहत्परिमाण है। अतः 'मूर्तद्रव्यमधिं कृत्वा' यह वाक्य लिखा है। अर्थात् मूर्तद्रव्यों में ही 'यह उससे पूर्व है, अथवा यह उससे पश्चिम है' इत्यादि प्रतीतियां होती हैं। ये प्रतीतियाँ जिससे हों वही 'दिक्' है। ‘एतस्मादिदं पूर्वम्' इसी अर्थ में केवल प्रातिपदिक अर्थमात्र के बोधक 'पूर्वेण' इस पद में प्रातिपदिकार्थ मात्र में तृतीया है । (प्र०) यह ठीक है कि पूर्वापरादि प्रतीतियाँ यतः कार्य हैं, अत: उनका कोई कारण अवश्य है, वह कारण 'दिक' ही है यह किस प्रकार निश्चय किया जाय ? इसी प्रश्न का समाधान है 'अन्यनिमित्तासम्भवात्' । अर्थात् पूर्वापरादि के अवधिभूत वे मूर्त द्रव्य ही उनकी प्रतीतियों के कारण नहीं हैं, क्योंकि इससे दक्षिणादि दिशाओं में विद्यमान द्रव्य में अनभीष्ट पूर्वापरादि की प्रतीतियाँ होंगी, क्योंकि कारणीभूत मूर्त द्रव्य तो है ही। 'दो विरुद्ध दिशाओं में विद्यमान दोनों द्रव्यों में ही एक दूसरे की सहायता से यथायोग्य पूर्वापरादि प्रतीतियाँ होती है' यह कहने पर उक्त दोष तो है ही, बल्कि इस कथन में उभयाभाव प्रसङ्ग का दोष अधिक' है । द्रव्य में रहने वाले गुणों एवं कर्मों को अगर पूर्वादि प्रत्ययों का कारण माने तो पूर्व दिशा में विद्यमान द्रव्य में रहनेवाले गुण और क्रिया से युक्त पश्चिम दिशा में विद्यमान मूर्तं द्रव्य में भी पूर्व दिशा की प्रतीति होगी। 'अत्र एतस्मादिदम्' इस अर्थ में पञ्चमी का प्रयोग हैं। नहीं तो 'अस्मादिदं प्राची' इत्यादि वाक्यों में प्रयुक्त पञ्चमी का प्रयोग व्यर्थ हो जायगा। (प्र.) यदि उक्त पञ्चमी का प्रयोग अवधि के अर्थ में मानें ? ( उ०) तो ठीक है, किन्तु बिना
१. अर्थात् पूर्वप्रत्यय में पश्चिम दिशा में विद्यमान मूर्त द्रव्य और पूर्व दिशा में विद्यमान मूर्स द्रव्य दोनों को परस्पर सम्मिलित होकर कारण माने तो पूर्व प्रत्यय एवं पश्चिम प्रत्यय दोनों में से एक को भी उत्पत्ति नहीं होगी। क्योंकि एक प्रत्यय दूसरे प्रत्यय के विषय मूत्ते द्रव्य के अधीन हो जायेंगे । अतः परस्पराश्रयत्वरूप आपत्ति से दोनों प्रत्यय असम्भूत होंगे।
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