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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
विभववचनात् परममहत्परिमाणमिति । द्रव्यत्वादावाकाशस्य परिमाणयोगित्वे सिद्धे "विभववान् महानाकाशः" इति सूत्रकारवचनात् परममहत्त्वमाकाशे सिद्धम् । यद्विभु तत्परममहद्, यथात्मा, विभु चाकाशं, तस्मादेतदपि परममहत् । विभुत्वं सर्वगतत्वं तदाकाशस्य कुतः सिद्धमिति चेत् ? सर्वत्र शब्दोत्पादात्, यद्याकाशं व्यापकं न भवति, तदा सर्वत्र शब्दोत्पत्तिर्न स्यात्, समवायिकारणाभावे कार्योत्पत्त्यभावात्। दिवि भुव्यन्तरिक्षे चोपजाताः शब्दा एकार्थसमवेताः, शब्दत्वात्, श्रूयमाणाद्यशब्दवत्, श्रयमाणाद्यशब्दयोश्चैकार्थसमवायः कार्यकारणभावेन प्रत्येतव्यो व्यधिकरणस्यासमवायिकारणत्वाभावात् ।
शब्दकारणत्ववचनात् संयोगविभागाविति । 'संयोगाद्विभागाच्छब्दाच्च शब्दस्य निष्पत्तिः" इति सूत्रेणाकाशगुणं शब्दं प्रति संयोगविभागौ कारणमित्युक्तम् । तेनाकाशे संयोगविभागौ सिद्धौ व्यधिकरणस्यासमवायिकारणत्वा
"सूत्रकार ने चूकि आकाश को विभु कहा है, अतः उसमें परममहत्परिमाण को सिद्धि होती है" अभिप्राय यह है कि चूंकि आकाश द्रव्य है, अतः उसमें परिमाण है। इस प्रकार परिमाण सामान्य के सिद्ध हो जाने पर "विभववान् महानाकाशः” सूत्रकार की इस उक्ति से आकाश में परममहत्परिमाण की सिद्धि होती है । जो विभु है वह अवश्य ही परममहत्परिमाण से युक्त है, जैसे कि आत्म। । आकाश विभु है, अतः वह भी परममहत्परिमाण से युक्त है। (प्र०) सभी मूर्त द्रव्यों के साथ संयोग ही 'विभुत्व' है। वह आकाश में किस हेतु से सिद्ध है ? (उ०) सभी स्थानों में शब्दों की उत्पत्ति से। अगर आकाश व्यापक न हो तो सभी स्थानों में शब्दों की उत्पत्ति नहीं होगी, क्योंकि समवायिकारण के न रहने से (समवेत) कार्यों की उत्पत्ति नहीं होती है। स्वर्ग, मर्त्य और पाताल इन सबों में उत्पन्न सभी शब्द एक ही द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से हैं, क्योंकि सभी 'शब्द' हैं, जैसे कि श्रयमाण शब्द और प्रथम शब्द । 'श्रूयमाण शब्द और उसका उत्पादक पहिला शब्द दोनों एक ही आश्रय में रहते हैं यह इसी से अनुमान करना चाहिए कि पहिला शब्द श्रूयमाण शब्द का कारण है। क्योंकि विभिन्न स्थानों में रहनेवाली एवं विभिन्न स्थानों में उत्पत्तिशील वस्तु उस स्थान में उत्पन्न होनेवाली वस्तु का असमवायिका रण नहीं हो सकती है।
"सूत्रकार ने चूकि आकाश को शब्द का कारण कहा है, अतः आकाश में संयोग और विभाग ये दोनों गुण भी सिद्ध होते हैं।" अर्थात् "संयोगात् विभागात शब्दाच्च शब्दस्य निष्पत्तिः” इस सूत्र से यह कहा है कि आकाश के गुण शब्द के संयोग और विभाग असमवायिकारण हैं। इसी से आकाश में संयोग और विभाग की भी सिद्धि होती है, क्योंकि एक आश्रय में रहनेवाली वस्तु किसी दूसरे आश्रय में
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